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विचारणीय प्रसंग
मान लिया जायगा? हमारी दृष्टि में तो ऐसा सर्वथा ही इसी भांति के पाठ 'सत कम्म' रूप में देखेंनही है। शुद्ध आत्मा को हम तो ऐसा मानते हैं-किये 'मूलुतर पगइगयं बउब्विहं 'संत कम्म' वि नेयं न जीव है और ना ही अजीव हैं, न अशान्त हैं और ना -कम्मपयडि. सत्तापगरण गाथा १ और टीकाही शान्त हैं, वे तो पर-निरपेक्ष 'चिदेकरसनिर्भरः' जो है ""पुनरेकैकं चतुर्विधं तद्यथा-प्रकृति सत्कर्म, स्थिति सो हैं-वचन अगोचर । जीव के जो प्रचलित भेद संसारी सत्कर्म, अनुभाग सत्कर्म प्रदेश सत्कर्म च (मलयगिरि)। और मुक्त बतलाए गए हैं वे भी बंध और अबंध दशा को संपुन्नगुणिय कम्मो पएस उक्कस्स 'संतसामी उ' लक्ष्यकर हृदयगम कराने की व्यवहार दृष्टि से ही बत
-कम्म पयडि, सत्ता पगरण गाथा २७ लाए गए हैं-शुद्ध आत्मस्वभाव की दृष्टि से नही । शुद्ध
टीका-सस्सेव यति रइय चरमसमये वट्टमाणस्स आत्मा की दृष्टि से तो वे केवल 'चिदेकरसनिर्भर' ही हैं
सामण्णेणं सव्वकम्माणं उक्कोसं 'पदेससंत कम्मं भवति ।' शान्तरस आदि जैसा कोई अन्य विकल्प नहीं।
खुलासा अर्थ-'उत्कृष्ट प्रदेश सत् कर्म स्वामी संपूर्ण 'संत'
गुणित कर्माश. सप्तम्यां पृथिव्यां नारक परम समये वर्त'पदेससंतकम्म' और 'पदेससंतमज' उक्त दोनो मानः प्राय: सर्वासामपि प्रकृतीनामवगन्तव्यः (मलयगिरि) पदी मे अन्त के शब्द 'कम्म' और 'मज्झ' का भेद है । जब इसी प्रकार इसी ग्रन्थ की मूलगाथा २८ से ३१की आचार्य ने पूर्व पद का अर्थ 'प्रदेश सत्कर्म किया है तो चूणि में 'उक्किस्स (उक्कोस ?) पदेससंत' पद बारम्बार, उत्तर पद का अर्थ 'प्रदेश सत्मध्य' स्वाभाविक फलित होता उत्कृष्टतया कर्म प्रदेशो की सत्ता को बतलाने को कहा है। और यदि इन्ही दोनो पदों के पूर्व मे 'अ' उपसर्ग जोड गया है-शान्त या शान्त-रस जैसा अर्थ बतलाने के कर इन्हें 'अपदेस संत कम्मं और 'अपदेस संत ममं कर लिए नहीं। दें तो इनका अर्थ क्रमशः 'अप्रदेश सत्कर्म' और 'अप्रदेश ऐसे ही 'उबसंत मोह' गुणस्थान में 'संत' शब्द को सत्मध्य' (अखड सत् (सत्त्व) के मध्य) फलित होता है। ये मोह के प्रभावहीन होने के भाव में भी देखा जा सकता तो हम पहिले भी लिख चुके हैं कि आत्मा असंख्यात प्रदेशी है। वहां यही कहा गया है कि इस गुण स्थान में मोह दब और अखड है : अप्रदेशी (प्रदेश रहित या एक प्रदेशी) नही। गया है-शान्त या प्रभावहीन हो गया है. आदि । यदि (तीर्थकर मई ८३, टा० ३, क्षु० जिनेन्द्र वर्णीजी को भी पढ़े) वहा 'उब-सत मोह मे से 'उव' उपसर्ग को हटा कर संत आश्चर्य न करें 'कषाय पाहुडसुत्त चणि मे इस 'पदेस
मोह का अर्थ लें तो वह भी दब जाने-प्रभावहीन हो
जाने के भाव में ही होगा। यानी मोह का शमन होगया सत कम्म' पद का उल्लेख है और यति वृषभाचार्य को प्रामाणिक मानने वालो के लिए यह श्रद्धा का विषय
ऐसा कहेंगे । यदि हम ऐसा न कह 'संत' का अर्थ 'शान्त
रस' लेंगे (जैसा कि उपक्रम किया जा रहा है) तो अर्थ है । वहा इस पद का अर्थ 'प्रदेश सत्कर्म किया गया है
होगा कि इस गुणस्थान में मोह शान्तरसी-शान्त रस'प्रदेश शांतकर्म' जैसा अर्थ नहीं । अब पाठक देखें कि वे 'अप्रदेश सत्कर्म और 'अप्रदेश सत् मध्य' अर्थ लेंगे या उन्हें
बाला मोह, हो गया है। इसका भाव ऐसा फलित होगा इनके अर्थ क्रमशः 'अप्रदेश शान्त कर्म' और 'अप्रदेश शान्त
कि जिन लोगों को शुद्ध आत्मा में शान्त रस इष्ट है, उनके मध्य' ठीक ऊंचेंगे? हम उन्ही पर छोड़ते हैं । देखें, वे अब
मत में मोह के सद्भाव में ही इष्ट-(शान्त रस) की 'संत' का अर्थ सत् (सत्व) लेते हैं या शान्त ? देखिए--
पूर्ति हो जाने से मुक्ति के लिए मोह आय का उपक्रम न
करना पड़ेगा-यतः मोह शान्त रसी होकर-सत्ता में सम्मामिग्छत्तस्सजहण्णय 'पदेस सन्त कम्म' कस्स? ते सिदों में शांत-रस का संचार करता रहेगा।
-कषायपाहुड, पदेसविहत्ती स्वामित्व गा० २२ सूत्र इस प्रकार बारहवें, तेरहवें गुण स्थान और अशरीरी होने ३१ और वहीं पद गाथा २२ सूत्र ५, ६-२० ३१, ३२, के उपक्रमों से भी छुटकारा मिल जाएगा और मोह क्षब ३५, ३०,४,४६, ५४,८०, ११७-२९० में। की आवश्यकता भी न पड़ेगी। ऐसे में दो बनविर भी