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भनेकान्त
नहीं कि तू मेरे को सुन और कान में जाकर वह आपको हमारा पैमाना है और यही वह फार्मूला है। सवाल है दुखी बना दे ऐसा भी नहीं परन्तु उस शब्द को तुमने ही बाहर से भीतर नहीं परन्तु भीतर से बाहर की तरफ। हर सुनने की चेष्टा की है और तुमने ही उसको उस रूप से बात को इसी पैमाने पर नापना है। ग्रहण किया है जिससे दुखी हुआ है। तूने उस शब्द के इसी प्रकार एक बीज जब बोया जाता है और जब साथ सम्बन्ध जोडा है तू अपने से सम्बन्ध जोड़े रहता वह अंकुरित होने के सम्मुख होता है तो फट जाता है तो कुछ होता नही । अपने से हटकर शब्दों से और शब्दों और जैसे-जैसे आगे बढ़ता है ऊपर की चट्टाने रास्ता देने के कहने वाले से जैसा सम्बन्ध जोड़ा वैसा दुखी-सुखी तू लगती है और ऊपर की जमीन फट जाती है। ऊपर की हो गया । इसलिए भीतर से देखने वाला समझदार है कि जमीन फटना बता रही है कि अब बीज पौधा बनने लग दुख-सुख का कारण शब्द नही वह व्यक्ति नही परन्तु मैं गया है परन्तु बाहर से देखने वाले कितनी ही जमीन को हं जिससे उससे सम्बन्ध जोड़ा है । वह अपनी गलती भीतर क्यो न फाड़े परन्तु पौधा नहीं निकल सकता।। समझ कर कालांतर मे फिर पर से सम्बन्ध नहीं जोडने एक तो फल पकता है गाच्छ पर और एक पकाया का अथवा अपने से सम्बन्ध बनाये रखने का पुरुषार्थ जाता है कारवाइड गैस देकर। जो कारबाइड गैस देकर करता है जबकि पहले वाला गाली निकालने वाले व्यक्ति पकाया जाता है वह ऊपर ऊपर से, बाहर से तो पका को दुख का कारण समझकर उससे द्वेष और सुख का दिखाई देता है परन्तु भीतर में मिठास नहीं होता और कारण समझकर उससे राग करता है।
उसकी पक.स अन्तस तक नही जाती परन्तु जो गाछ का पहली परालम्बन दृष्टि है दूमरी स्वालम्बन दृष्टि है। पका होता है वह भीतर से पकता है और उसकी पक्कस पहली बात हमें बाहर की तरफ, पर की तरफ ले जाती भीतर से बाहर की तरफ आती है, उसकी मिठास का है दूसरी हमें बाहर से भीतर लाती है। आत्मकल्याण क्या कहना। यही बात आत्मा के बारे में है भीतर जब बाहर से, पर से, भीतर आने मे है भीतर ही रहने में है। आत्म परिवर्तन होता है तब आत्मदर्शन होता है तो बाहर संसार मार्ग भीतर से बाहर में पर मे जाने में है। जो मे उसी के अनुकूल मिठास आती है। फल में परिवर्तन शब्द, जो मूर्ति, जो स्तोत्र जो पूजा हमें बाहर से भीतर आता है परन्तु बाहर का परिवर्तन करने मात्र से भीतर ले जाने में प्रेरक है वह उपयोगी है जो हमें भीतर से में मिठास नहीं पैदा होती। बाहर की तरफ प्रेरणा करती है वह उपयोगी नही है यही
-सन्मति बिहार, नई दिल्ली
(पृ. २८ का शेषांश) १६. जामखेडकर, कुवलयमाला ए कलचरल स्टडी, २७. समराइच्चकहा, ७, पृ० ६८८
पृ० २४२। १७. फ्लीट, भाग ३ पृ०८
२८. वही ६, पृ० ५२६ १८. आदि पुराण (जिनसेन) १६-१६१
२६. जैन प्रेम सुमन, कुवलयमाला का सां० अ० पृ० १६. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० १५५
२४१-४२ २०. समराइच्चकहा, ४ पृ० ३४९
३०. वही, पृ० ३१६ २१. आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश ।
३१. ज्ञाताधर्म कथा, प्रथम अध्ययन । २२. समराइच्चकहा, १, पृ०५५
३२. कुवलयमाला का सां० अ०, पृ०७७-७८ २३. किराता०, सर्ग १२, श्लोक ४०-४३
३३. दशवकालिक (हरिभद्रवृत्ति), पृ० २०८ २४. ज्ञाताधर्म कथा, अ०२ २५. यशस्तिलकचम्पू पृ०२०३ (उत्तरा०)
३४. वर्धमान चरितं, सोलापुर, ३-३८ २६. यादव, समराइच्चकहा का सांस्कृतिक अध्ययन ३५. जैन, गोकुल चन्द्र, यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
पृ० १०५।