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बाहर-भीतर
श्री बाबूलाल जैन देखने के दो तरीके हैं बाहर से देखना अथवा भीतर के हो रहे हैं जैसा पहले वाले ने किया है परन्तु दोनों में की तरफ से देखना। एक वृक्ष से एक पत्ता गिर गया बड़ा फर्क है एक शारीरिक परिवर्तन है और एक आत्मीक और नया पत्ता आ गया बाहर से देखने वाला परिवर्तन है। एक आत्मीक क्रांती है जो पूरे जीवन को देखता है कि पुराना पत्ता गिरने से नया पत्ता आया बदल देती है। है। उसका कहना जैसा बाहर से दिखाई देता है इसी को कहते है केवल व्यवहार का उपदेश जो पहले उसी पर आधारित है परन्तु भीतर से देखने वाला वाला है। और एक है निश्चयपूर्वक व्यवहार जो दूसरा कहता है कि नया पत्ता आने के सन्मुख हुआ तो पुराने है। असली बात तो निश्चयपूर्वक व्यवहार है परन्तु जो पत्ते ने जगह खाली कर दी। अब अपने को समझना है देखा जाता है कि अभी इसकी पात्रता नही है तो मात्र कि सही बात क्या है। यह सही है कि दोनों अवस्थाओ व्यवहार का याने बाहर का उपदेश देते हैं यह समझकर में पुराना पत्ता गिरा है परन्तु देखना है कि पुराना पत्ता कि कम से कम इसमे लगा रहेगा उतना ही ठीक है फिर गिरना कारण है कि कार्य है। बाहर से देखने वालो को कभी असलियत को समझने का उपाय करेगा। कारण दिखाई देता है अतर से देखने वालो को कार्य याने एक और तीसरा व्यक्ति है जो अतर को तो जाना (reaction) दिखाई देता है।
नही अतर दृष्टि हुई नही परन्तु किसी से अथवा ग्रन्थों से आत्मकल्याण के कार्य मे भी ऐसे दो प्रकार से दिखाई उसका कथन जान कर बना हुआ शानी है वह आत्मदेता है। बाहर से देखने वाला समझता है इतना त्याग
क्रांति को तो प्राप्त हुआ है ? इसलिए बाहर में परिवर्तन करने से-इतना काया कष्ट करने से. इतना व्रत उप- आता नहीं और पहले वाले खाली व्यवहार को गलत बासादि करने से ऐसी वीतरागता प्राप्त हो जाती है और समझ बैठा और फल यह निकला कि बाहर में स्वच्छन्दता वह वैसा करने का पुरुषार्थ करता है परन्तु जलब्धि को प्राप्त हो जाता है। प्राप्त नही होती । जैसे बाहर के पत्तं कच्चे तोड़कर फैक इसी प्रकार बाहर से देखने वाला सेमलता है कि देने से नया पत्ता नही आता परन्तु भीतर से देखने वाला फलाने आदमी ने गाली निकाली इसने मुझे क्रोध करा देखता है कि अगर मैं भीतर में निज आत्मस्वभाव का दिया। उसने ऐमा किया इसलिए मेरे को राग हो गया। अवलम्बन कर-और ज्ञाता-दृप्टा वने रहने का पुरुषार्थ उसका सुख-दुःख सब पर के अधीन हो जाता है। रास्ते करू तो स्वालम्बन बढ़कर परालम्बन छूटता चला जायेगा। चलते किसी भीख मांगने वाले ने बाबू जी कह दिया तो फिर बाहर में त्याग नहीं करना पड़ेगा परन्तु बाहर में सुख हो गया और चलबे ! बाबू जी तेरे जैसे बहुत देखे हैं, उसकी जरूरत ही नहीं रहेगी। बाहर से देखने वाले को कह दिया तो दुखी हो गया। असल में विचारा जावे तो कायाकष्ट मालूम देता है परन्तु वह तो गर्मी सर्दी में हमारा दुःख-सुख एक भिखमंगे के आधीन है। यह है रहते हुए भी दुख नहीं भोग रहा है परन्तु अपने स्वभाव हमारी आत्मा की पराधीनता का नमूना । हमें विचारना का भोग कर रहा है वहां गर्मी सर्दी मालूम ही नही हो होगा कि दुख पा करने वाला वह भिखमंगा था कि रही है। निज आनन्द में लगा हुआ है भूख और प्याम कुछ और था। की जरूरत ही नही। बाहर में कार्य तो मभी उसी प्रकार ग्रन्थकार कहते हैं कि बोला गया शब्द तो यह कहता