________________
बैन साहित्य में चित जनजातियां
म्लेग्छ, अन्त्यज, कर्मकार एवं विदेशी इन चार जातियों में जन-जाति न होकर कोई विदेशी जाति रहीं होगी। प्रमुख रूप से विभक्त किया जा सकता है।"
मारण्य : जंगल में निवास करने के कारण जनप्राकृत आगम के प्रसिड ग्रंथ निशीयसूत्र (१६.२६ जाति का एक नाम आरण्य भी था। यह धनुर्धर एवं वीर आदि) में पांच प्रकार की अनार्य जातियों का उल्लेख जाति थी। आरण्य जाति के लोग शिकार करते थे। वे है-विरूव, दसू, अणांरिय, मिलक्खू और पच्चंतिय। जंगली जडी-बूटियोंको एकत्रकर उन्हें नगरों में बेचते थे। अनेक वेष धारण करने वाले और विभिन्न जन-भाषाओं बरट : म्लेच्छ जातियों में चरट नामक जाति भी को बोलने वाले लोग विरूव कहलाते थे। इस निरूव का थी। उसे आरण्यचर भी कहते हैं। जो उसके जंगल में आधुनिक शब्द वैरवा हो सकता है। राजस्थान मे वैरवा विचरण करने का द्योतक है। जाति प्रचलित है। क्रोधी और दांत से काट खा जाने
गोंड : यह भी एक जन-जाति थी, जिसे अनार्य कहा वाले जगली लोग दसू (दस्यु) कहलाते थे । आर्यभाषा को
गया है। नर्मदा तथा कृष्णा नदी के बीच में स्थित प्रदेश न ममझने वाले, हिंसा आदि मे रत लोग अनार्य कहे जाते
में इनका निवास बताया गया है।" मध्यप्रदेश में आज थे। अव्यक्त वाणी बोलने वाले आदिवासी म्लेच्छ कहे जाते
मी गोंड नामक जनजाति है, जो जंगल की वस्तुओं से ही थे। तथा गांव या नगर की सीमा के बाहर निवास करने
अपनी जीविका चलाती है। वाले निवासी पच्चतिय (प्रत्यतिक) कहे जाते थे।"प्राकृत
किरात : यह जाति प्राचीन भारत में प्रचलित जंगली के इस विवरण से यह प्रतीत होता है कि उस समय की
जाति है। म्लेच्छ जाति की यह एक उपजाति थी। जन-जातियों के विशेष लक्षण इस प्रकार थे-विचित्र
किरातार्जुनीयम् नामक संस्कृत काव्य से किरातों की वेशवेप-भूषा, ग्रामीण बोली, हिंसक प्रवृत्ति, कुरूपता और
भूषा स्पष्ट हो जाती है।" कुवलयमाला, यशस्तिलकचम्पू एकांतवास । ये प्रवृत्तिया थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ
मे किरात को शिकारी जाति के रूप मे गिना है। किरात आज भी जन-जातियो मे मिल जायेंगी।
का दूसरा नाम चिलान भी मिलता है। किसी वन मे जैन साहित्य में मुख्यरूप से आर्य संस्कृति के विपरीत
किरातों का राज्य होता था।" आचरण करने वालो को म्लेच्छ कहा गया है। आठवीं शताब्दी तक इन म्लेच्छो का रहन-सहन अलग था । अतः
शाबर : अनार्य जातियों में शबरों का प्रमुख स्थान इनके संगठन भी बन गए थे।" प्रश्नव्याकरण सूत्र तथा
था । जैन-साहित्य में शबर को असभ्य और जंगली जाति कुवलयमाला मे कई म्लेच्छ जातियों के उल्लेख हैं। उनमें
माना गया है। शबर जाति के लोग दरिद्री होते थे। मे कुछ जातियों का परिचय इस प्रकार है:
ठंड में भी उनके पास कपड़े नही होते थे। समेराइचकहा
में भिल्ल और शवर जाति को एक माना है।"शबरों की औडर : औड्ड की आधुनिक पहचान उडीसा की
अलग पाल्लि (गांव) होती थी। जिसका एक मुखिया होता पिछडी जातियों से की जा सकती है । हुएनसांग ने इनको
था शबर जंगल से गुजरने वाले पथिकों एवं सार्थों को लूट औड कहा है, जो काले रंग के असभ्य लोग थे।"
लेते थे। शबर चण्डिका देवी की आराधना करते थे। चंच्य : यह जाति भारत के सीमा प्रदेशो में निवास
जंगल की जड़ी-बूटियों का इन्हें ज्ञान था। अत: शबर करती थी। वर्तमान में दक्षिण भारत की चेच्चुस नामक
रोगों का उपचार भी करते थे। दक्षिण भारत की पहाड़ी जाति से इसकी पहिचान की जा सकती है।"
जाति के रूप में शबर प्रसिद्ध थे। शबर कुछ विद्याओं के मुर: प्राकृत के अतिरिक्त भी अन्य भारतीय जानकार थे। उनकी शाबरी-विद्या शबर-वेष धारण करके साहित्य में इसके उल्लेख हैं । इतिहास से ज्ञात होता है ही सीखी जा सकती थी।" कि समुद्रगुप्त ने शक और मुरुडो को हराया था।" किन्तु पलिन्द : प्राचीन साहित्य में पुलिन्दों का पर्याप्त बाद में इस जाति के उल्लेख नहीं मिलते । अतः मुरुड उल्लेख है। पुलिन्द भी भीलों की ही एक जाति थी।