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भागलपुर की प्राचीन जैन प्रतिमाएं
0 डॉ० प्रजयकुमार सिन्हा
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भागलपुर', प्राचीन चमापुर, जैन धर्मावलम्बियों के मे वर्णन हम पाते हैं। चीनी यात्री हुएनसाग' ने भी लिए एक महत्वपूर्ण नगर है। प्राचीन जैन साहित्य में इस नगर (चेन पो) की समृद्धता का वर्णन किया है। इसका उल्लेख प्रमुख रूप से मिलता है। यहां बारहवें औपपातिक सूत्र में इस नगर के द्वार, प्रासाद, उद्यान एवं तीर्थकर भगवान वासुपुज्य' जी का जन्म तथा निर्वाण तालाबों का उल्लेख है। हा था। इसी कारण तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ' जी वासूनन्दि' का मत है कि ऐसे सभी स्थान, जहां एव अतिम तीर्थकर भगवान महावीर' इम नगर में पधारे तीर्थकर ने जन्म लिया, दीक्षा ली अथवा निर्वाण की थे। प्रमुख जैन ग्रय आचारांग सूत्र मे इस क्षेत्र की राज- प्राप्ति किया जैन मन्दिर के लिए उपयुक्त हैं। भुवनदेव' नैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक अवस्था का विस्तृत रूप ने अपने ग्रंथ अपराजितपच्छा में लिखा है कि जैन मदिर (पृ० १४ का शेषाश)
नगर के भीतर ही बनना चाहिए। चूकि भागलपुर अर्थात बरयात्रा-बरआत्त-वरात्त-बरात । यज्ञ यात्रा- प्राचीन चम्पापुर मे बारहवे तीर्थकर भगवान वासुपुज्य जण्ण आत्त-जण्णत्त-जन्नत्त-जनेत ।
पचकल्याण को प्राप्त हुए, अतएव यह जैनियों का एक पजाबी में बरात के लिए 'जज' राजस्थानी और महान तीर्थ बन गया। छठी शताब्दी ई० पू० मे ही इस गुजराती में 'जान' शब्द आता है। जो यज्ञ से बने शब्द नगर में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा को दन्तपुर नरेश है। यज्ञ -जण्ण----जाण - जान । पजाबी मे यज्ञ-जज करन्दक ने स्थापित किया था।" यहां भगवान महावीर ---जज । बाराती की जानी और जाजी कहते है । इसी के शिष्य मुधर्मन के समय मे एक समृद्ध जैन बिहार था। प्रकार दूल्हा पील सवार, दहेज डोर आदि सैकडो शब्द जो पूर्णभद्र यक्ष चत्य" के नाम से विख्यात था। तब से है, जो आर्यभाषा की देशी प्रवृत्ति से आधुनिक भारतीय निरन्तर जैन धर्म इग नगर में फैलता गया। जिसका आर्यभाषाओं में प्रयुक्त है, जिन्हें हिंदी के कुछ अति प्रमाण यहा के अनेक जैन मदिरो में सकलित प्राचीन जैन उत्साही समन्वयवादी विद्वान् विदेशी मान रहे है, शब्द प्रतिमाए है जो प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वही नहीं, उन्हे, अपभ्र श, उसकी तुकात शैली, दूहा, रड्डा- पूर्ण है। बद्ध काव्य शैली या पद्धडिया बध में विदेशी प्रभाव सबसे प्राचीन प्रतिमा भगवान आदिनाथ" की है। (फारसी प्रभाव) दिखाई देना है। मौभाग्य से स्वयभू तीर्थकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े है । इसका वृतबंध जटाजूट
और पुष्पदत का साहित्य प्राचीन और आधुनिक के बीच, अत्यन्त प्रभावशाली है जो हमे गुप्तकाल का आभास देता एक प्रामाणिक कड़ी उपलब्ध है। यदि यह न होती, तो है। इनके सीना पर अकित श्रीवत्स चिह, कधे तक लटये सब शब्द विदेशी करार दे दिए गए होते, हम उन कते हुए लम्बे कान, तथा कुचित केशवल्लि, अधखुली कवियों के अनुगृहीत तो है ही, परन्तु उनके भी अनुगृहीत आखे, मस्तक पर दोनो भौहो के मध्य में गोल टीका तथा हैं जिन्होने उन्हें सजन की प्रेरणा दी और उनके साहित्य इसका नग्न रूप सब एक साथ मिलकर एक महापुरुष के को सुरक्षित रखा।
लक्षण को दर्शाते हैं। भगवान आदिनाथ एक साधारण शाति निवास ११० उपा नगर आसन पर खड़े हैं जिसके मध्य मे धर्मचक्र चिह्न अति
इदौर ४५२००६ सुन्दरता से अकित है। इनका लाछन बैल (वृषभ) है