Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 65
________________ जैनदर्शन में द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नये I नही करता वह भेद विकल्प निरपेक्षशुद्ध द्रव्याषिक नय है जो सब रागादि भावो को जीव कहता है या रागादि भावो को जीव कहना है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है । जो नय उत्पाद व्यय के साथ मिली हुई सत्ता को ग्रहण करके द्रव्य को एक समय में उत्पाद-व्यय धौम्यरूप कहता है वह अशुद्ध द्रव्याधिकनय है। समस्त स्वभावो मे जो यह द्रव्य है इस प्रकार अन्वय रूप से जो द्रव्य की स्थापना करता है वह अन्वय द्रव्याधिक नय है जो स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव मे वर्तमान द्रव्य को ग्रहण करता है वह स्वद्रव्याविग्राहक द्रव्याथिक नय है और जो परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव मे असत् द्रव्य को ग्रहण करता है वह परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यापिक नय है। जो अशुद्ध शुद्ध और उपचरित स्वभाव से रहित परम स्वभाव को ग्रहण करता है वह परमभावप्राही द्रव्याषिक नम है उसे मोक्ष के अभिलाषी को जानना चाहिए जो अकमिक और अनिधन अर्थात् अनादि अनंत चन्द्रमासूर्य आदि पर्यायों को ग्रहण करता है उसे जिन भगवान ने अनादि नित्य पर्यायायिक नय कहा है जो पर्याय कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने के कारण सादि है अत विनाश का कारण न होने से अविनाशी है। ऐसी सादि नित्य पर्याय को ग्रहण करने वाला सादि नित्य पर्यायाधिक नय है । जो सत्ता को गौण करके उत्पाद-व्यय को ग्रहण करता है उसे अनित्य स्वभाव को ग्रहण करने वाला शुद्ध पर्यायाथिक नय कहते हैं। जो एक समय मे उत्पादव्यय और धौम्य से युक्त पर्याय को ग्रहण करता है वह स्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायायिक नय है जो चार गतियों के जीवो की अनित्य अशुद्ध पर्याय का कथन करता है वह विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायायिक नय है।" योग मुख्य दिक्षा से परस्पर सापेक्ष होकर ये नय सम्यग्दर्शन के कारण होते हैं और पुरुषार्थं क्रिया मे समर्थ और पुरुषार्थ क्रिया मे समर्थ होते हैं।" नयों के मूलभेद मानने में भी मतभेद है आचार्य सिद्धसेन अभेदग्राही नंगम का सग्रह में तथा भेदग्राही नैगम का व्यवहार नय मे अन्तर्भाव करके नयों के छह भेद ही मानते है।" षट्खण्डागम मे नैगमादि शब्दान्त ५ भेद नयों के गिनाये हैं पर कषायपाहुड़ में मूल ५ भेद गिनाकर शब्द नय के ३ भेद कर २३ दिए हैं और नैगम नय के संग्रहिक और असग्रहिक दो भेद भी किए है। इस तरह सात नय मानना प्राय सर्वसम्मत है ऐसा प्रो० महेन्द्रकुमार जी ने लिखा है।" द्रव्याधिक नय तीन प्रकार का है संग्रह, व्यवहार और नैगम । इन तीनों में से जो पर्यायकलक से रहित होता हुआ अनेक भेदरूप सग्रह नय है वह गुड द्रव्याधिक है और जो पर्यायकलक से युक्त द्रव्य को विषय करने वाला व्यवहार नय है वह अशुद्ध द्रव्याधिक है जो सत् है वह दोनों अर्थात् भेद और अभेद को छोड़कर नही रहता है इस प्रकार जो केवल एक को अर्थात् अभेद या भेद को ही प्राप्त नही होता है किन्तु मुख्य और गौणभाव से भेदाभेद दोनो को ग्रहण करता है उसे नंगम नय कहते है। शब्दशील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, सहचार, मान, मेय, उन्मेष, भूत, भविष्यत् और वर्तमान इत्यादिक का आधय लेकर आश्रय होने वाला उपचार नैगम नय का विषय है ।" पर्यायार्थिक नय ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूड, एवम्भूत के भेद से ४ प्रकार है इनमें जो तीन काल विषयक अपूर्व पर्यायों को छोड़कर वर्तमान कालविषयक पर्याय को ग्रहण करता है वह मूत्रनय है।" जो पति अर्थात् अर्थ को बुलाता है या उसका ज्ञान कराता है वह शब्दनय है यह नय लिंग, वचन, कारक पुरुष और उपग्रह के व्यनिवार को दूर करने वाला है ।" शब्दभेद से जो नाना अर्थों में रूह हो अर्थात् जो शब्द के भेद से अर्थ के भेद को स्वीकार करना है वह समभिरूढ़ न है ।" जैसे इन्दन अर्थात् ऐश्वर्यो व सोम रूप क्रिया के सयोग से इन्द्र, सकन क्रिया के सयोग से शक और पुरो के विभाग करने रूप किया के सयोग से पुरन्दर इस प्रकार एक अर्थ का एक शब्द से परिज्ञान होने से अथवा अन्यर्थक शब्द का उस अर्थ मे सामर्थ्य न होने से पर्याय शब्दो प्रयोग व्यर्थ है इसलिए नाना अर्थी को छोड़कर एक अर्थ मे ही शब्द का रूद्र होना इस नय की दृष्टि मे उचित है।" जो शब्द गत वर्गों के भेद से अर्थ का और गो आदि अर्थ के भेद से गो आदि शब्द का भेदक है वह एक भूतनय है किया का भेद होने पर एवम्भूत नव अर्थ का भेदक नहीं है क्योंकि शब्द नय के अन्तर्गत एवं भूत नय के अर्थ नय का विरोध है ।" जैनदर्शन में ये नय वस्तु को सम्य रूप से समझने

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