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"रूपशतक" एक अनठी आध्यात्मिक कृति
कम्बित इन्द्री सुख लगे विषय विरह तुभाइ ॥३॥ विषयन सेवत हू भलं तिसना तो न बुझाइ |
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प० रूपचन्द जी का जन्म कुह देश के सलेमपुर नामक ग्राम मे स० १६४० के लगभग हुआ था, ये गर्ग गोत्रिय अग्रवाल थे इसके बाबा मामट और पिता का नाम ज्यू वारा जल पीवन बाई तिस अधिकाइ (४) भगवानदास था। भगवानदास को दो पत्निया थी जिनमे तिसना उपशम कारने विषयन सेवत आइ । से एक से ब्रह्मदास नामक पुत्र का जन्म हुआ था और मृग वपुरा प्यासनि मरे ज्यु जल धोखो खाइ |५| दूसरी से हरिराज, भूपति, अभयराज, कीर्तिचन्द और रूप- चेतन तुम भरमत भए रहे विषयसुखमानि । बंद ये पाच पुत्र उत्पन्न हुए थे यही रूपचंद जी हमारे ज्यो कपि शीत बिया मरं ताप गुजा आनि |६| 'रूप शतक' या 'रूपचंद शतक' के कर्ता है। चूंकि रूप- विपयन सेवत दुख भर्ज सुख व तिहारे जानि । चद जी जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान् थे और भट्टारकीय अस्थि चर्बानि निज रुधिर ते ज्यु सच मान स्त्रान ॥७॥ परम्परा से सबंधित अत इन्हे 'पाडे' की उपाधि से जिन ही विपयन दुख दियो तिनीला घा थे अलकृत किया गया था। इनकी मृत्यु स० १६६४ में हो गई थी। इनकी कई वनाए उपलब्ध है जो आध्यात्म रस से पगी हुई है और सैद्धान्तिक चर्चाओ की अगाध भडार है । १. रूप (पद) क (दोहा शतक परमार्थ दोहा शतक, दोहा परमार्थ इत्यादि) २. गीत परमार्थ या परमार्थी गीत ३. अध्यात्म सर्वया ४ खटोलना गीत ५. पचमगल या मंगल गीत प्रबन्ध ६. फुटकर पद ७ परमार्थ हिंडोलना ८ तत्वार्थ सूत्र भाष टीका ९ नेमिनाथ रासो १० आध्यात्मिक जकडिया ११. समवशरण पूजा पाठ १२. पंच कल्याण पूजा पाठ आदि-आदि। इनमें से अन्तिम दो कृतिया सम्कृत की सुपुष्ट रचनाए है। रूपचंद कृत समय मार भाषा का भी उल्लेख मिलता है पर यह रचना स० [१७०० की है अत यह कोई दूसरे रूपचंद होंगे क्योंकि प्रस्तुत प० रूपचंद जी का देहावसान तो म० १६६८ मे ही हो गया था । प्रस्तुत 'रूप शतक' बहुत ही सुन्दर और सरस है दोहा जैसे छोटे छद में कवि ने आध्यात्म एव निश्चय व्यवहार आदि नयो की संद्धातिक चर्चा का बडी गभीरता पूर्वक चित्रण किया है। पढ़कर मन प्रफुल्लित हो जाता है, आइए आप भी इसका रसास्वादन करें।
बोहा
अथ रूप शतक लिख्यते ।
अपनी पद न विचार हो अहो जगत के राइ । भव बन छाय कहा रहे शिवपुर सुधि बिसराई |१| भव वन चेतन बसत ही बीते काल अनादि । अब किन पर सभारि हो कित दुःख देखत यादि ॥ २ ॥ परम अतिन्द्री सुख सुन तुम गयौ सु भुलाइ।
माता मारे बाल ज्यां वह उटि पग लपटाइ || विपयन सेवन दुख बने देबहु किन जीउ जोइ । खाज खुजावत हो भलं फिर दुख दूनी होइ ॥ ६ सेवन विषय लगे भले अन्त करहि अपकार । दुरजन जन को प्रीति ज्यो जब तब होइ विकार | १०| सेवन ही मधुरे विषय करूए हीहि निशान विपफल मीठे खात ज्यु जन्न हरहि निज प्रान ॥ ११ ॥ वि विषय तुम आपुन लीयो अनर्थ विमाहि । आधि रहे ज्यांमि कोठा माहि १२० चेतन तुम डहकाइ दे विषय सुखनि बौराई । रतन लियो मिसु पास तं ज्यो कछु इक दे माइ ॥१३॥ लागत विषय सुहावने करत जु तिनमो केलि । चाहत हो तुम कुशल पो बालक पनि सौ खेलि |१४| यिन सेवन सुख नहीं कष्ट भने ही हो
चाहत हो कर चीनी निलो ॥१५॥ देखि विषय सुहावने चाहत है सुख सई जु
बालक विपफल भी बरजे पर हंस ने १६ विषयन के दुख जरत हो विषयन ही सो रग । दीपक देखि सुहावनी ज्यू हट जरत पतग । १७ चेतन तुम जु परम दुःखी तात विषय सुहात । भूख मरत ज्यु स्वाद से मूड करेला खात ॥१ विपयन मन में राखिके रहे प्रतीति भानि । घर भीतर ज्यु फनि बसे जब तब पूरी हानि ॥ १९॥ विपय भिलाव न छवि क्रिया करत मन भाइ घर ही मैं बटवा पर बाहिर राखत काय ॥२०॥ बिषयन की परनीति में सोबत कहा न चीत ।