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२६, वर्ष ३६, कि० १
'क्षुल्लकेष्वेककं वस्त्रं नान्यन्नस्थितिभोजनं । आतापनादियोगोऽपि तेषा शश्वन्निषिध्यते ।। १५५३ ।। क्षौरं कुर्याच्चलोचं वा पाणी भुंक्तेऽथ भाजने । कोपीन मात्र तंत्रोऽसी क्षुल्लक परिकीर्तितः ।। १५६ ।।' इन श्लोकों में क्षुल्लक के लिए एक वस्त्र का विधान दो बार कहा गया है और जोर देकर 'अन्यत् न' के द्वारा द्वितीय वस्त्र का निषेध किया गया है (जब कि बाद के काल में क्षुल्लक के दो वस्त्रों की परिपाटी रही है ? यह क्यों और कैसे ? यह स्पष्ट नही हो पा रहा ।) दूसरे श्लोक मे तो 'कौपीन मात्र तत्रोऽसो' में 'मात्र' पद देकर द्वितीय वस्त्र का सर्वथा ही निषेध कर दिया । इसका भाव ऐसा हुआ कि ग्यारहवी शताब्दी से पूर्व तक ग्यारहवी प्रतिमा क्षुल्लक के रूप मे ही रही और क्षुल्लक एक वस्त्रधारी ही कहे जाते रहे ।
अनेकान्त
बारहवीं शताब्दी में आचार्य वसुनन्दी ने सर्वप्रथम दो भेद किए और उन्हें प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट नाम दिए । तथाहि
'एयारसंमि ठाणं उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो । वत्थेक्कधरो पढमो कोवीण परिग्रहो विदिओ ॥ ३०९ ॥'
- ग्यारहवें स्थान अर्थात् ग्यारहवी प्रतिमा को प्राप्त उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकार के होते है - प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट । इनमें प्रथमोत्कृष्ट श्रावक एक वस्त्रधारी और द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक कौपीन परिग्रहधारी होता है ।
उक्त गाथा से किसी के भी दो वस्त्र होने की स्पष्ट पुष्टि नही होती, अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथमोत्कृष्ट के लिए एक वस्त्र (बड़ा--जो शरीर के कुछ भाग पर लपेटा जा सकता हो ?) का विधान हो और द्वितीयोत्कृष्ट को उसमें संकोच करके कोपीन मात्र जैसा । वस्त्र दोनो पर ही एक हो ? यहां तक भी ऐलक शब्द का व्यवहार नही हुआ-भेद भी हुए तो प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक के नाम से ।
आचार्य वसुनन्दी ने दोनों की विशेष विधि का वर्णन करते हुए निम्न गाथा दिए हैं
धम्मिल्लाणं चवणंकरेईकत्तरि छुरेण या पढमो । ठाणासु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा ॥
भुंजे पाणिपत्तम्मि भायणे वा सई समुवइट्ठो । उववासं पुण णियमा चउव्विहं कुणइ पब्वे ॥ पक्खालिऊण पत्त पविसइ चरियाय पंगणें ठिच्चा । भणिऊण धम्मलाह जायइ भिक्ख सयचेव || सिग्धलाहाला हे अदीण वयणो नियतिऊण तओ । अण्णम्मि गहेवच्च दरिसइ मोणेण कायं वा ॥ जद्द अद्धव कोइबि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह । मोत्तूण णिययभिक्ख तस्सण्णं भुंजए सेसं ॥
अह ण भणइ तो मिक्खं भमेज्ज णियपोट्टपूरणरमाण । पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुग सलिल । जकि पि पडियभिक्ख भुंजिज्जो सोहिऊण जत्तेण । पक्खालिऊण पत्त गच्छज्जा गुरुसवासम्म । जइ एवं ण रएज्जो काउंरिसगिम्मि चरियाए । पविसत्ति एयभिक्खं पवित्तिणियमण ता कुज्जा ॥ गंतणगुरुसमीव पच्चक्खाणं चव्विहं विहिणा | गहिकण तओ सव्व आलोचेज्जा पवत्तेण ॥' - वसु० ३०२ - ३१० ।
- प्रथमोत्कृष्ट श्रावक कैची या छुरे से हजामत करता है, प्रयत्नशील होकर उपकरण से स्थान का सशोधन करता है । हाथों अथवा पात्र में एक बार बैठकर भोजन करता है और पर्व -दिनो में नियम से उपवास करता है । पात्र को प्रक्षालन करके चर्या के लिए श्रावक के घर मे प्रवेश करता है और आगन मे ठहरकर 'धर्मलाभ' कहकर स्वयं ही भिक्षा याचन करता है। भिक्षा न मिलने पर अदीन मुख वहाँ से शीघ्र निकलकर दूसरे घर जाता है और मौन से अपने शरीर को दिखलाता है। यदि अर्धपथ मे कोई श्रावक मिले और प्रार्थना करे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्व घर से प्राप्त भिक्षा को खाकर, जितना पेट खाली रहे, उतना उस श्रावक के अन्न को खावे । यदि कोई भोजन के लिए न कहे तो पेट के प्रमाण भिक्षा न मिलने तक भ्रमण करे, भिक्षा प्राप्त होने पर किसी एक घर मे जाकर प्रासुक जल मागे । जो भिक्षा प्राप्त हुई हो उसे शोधकर भोजन करे और सयत्न पात्र प्रक्षालन कर गुरु के समीप जावे । यदि किसी को उक्त विधि से गोचरी न रुचे तो वह मुनियों के गोचरी कर जाने के बाद चर्या के लिए