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मैन न्याय के सर्वोपरि प्रस्तोता-भीमद् भट्टाकलंकवेष सनारोहण से हुआ था और हरिवंश पुराण में सुरक्षित है" । इस विषय मे अब तनिक भी सन्देह नहीं है कि इन जैन अनुश्रुति उक्त घटना की तिथि विक्रमपूर्व ४२५ सूचित 'पूज्यपाद' से अभिप्राय अकलङ्क देव का ही है"। अपनी करती हैं। अतएव ११२५ मे से ४२५ घटाने पर विक्रम धवला टीका (७५०ई०) में स्वामि वीरसेन ने भी अकवर्ष ७०० प्राप्त होता है, और उस वर्ष का संवत्सर भी लङ्कदेव का मात्र 'पूज्यपाद' नाम से ही स्मरण एवं पिंगल ही था।
_उल्लेख किया है तथा उनके ग्रन्थो से उद्धरण दिये है"। ११२८ ई० की मल्लिषेण प्रशस्ति के अनुसार अक. अकलङ्कदेव एक महान सपाचार्य थे और वह देवगण (या लकूदेव के एक कनिष्ठ सधर्मा पुष्पसेन थे। जिनके शिष्य देवसघ) से ही सम्बद्ध थे, नन्दि या देशियगण से नहीं"। महानवादी विमलचन्द्र थे जो कि 'शत्रुभयंकर' नामक उन्हे तथा उनके उत्तराधिकारियो को मुख्यतया वातापी किसी नरेश की राजसभा से सम्बद्ध थे। विमलचन्द्र के के पश्चिमी चालुक्य नरेशो का सरक्षण एवं राज्याश्रय प्रशिष्य परवादिमल्ल भी भारी वादी एवं ताकिक थे और प्राप्त था, और वे एक प्रमिद्ध ज्ञानकेन्द्र के अधिष्ठाता उनका सम्बन्ध कृष्णराज नामक एक नरेश से था"। जो रहे, जो चालुक्यो की राजधानी वातापी (बादामी) से विद्वान अकलङ्कको वी शती ई० मे हुआ मानते रहे, नातिदूर सभवतया एहोल अथवा उक्त अलक्तकनगर में उन्होंने उक्त दोनों राजाओं को भ्रमवश राष्ट्रकूट गोविन्द स्थित था। (७१३-१४ ई०) तथा राष्ट्रकूट कृष्ण द्वि० (८८४- अकलङ्कदेव का भक्त 'राजन साहसत्तुंग' चालुक्य
के साथ क्रमशः समीकृत करने का प्रयत्न नरेश पुलकेशिन द्वि० (६०६-४२ ई०) के पुत्र एवं उत्तराकिया" । उक्त परवादिमल्ल ने न्यायबिन्दु पर रचित बौद्ध धिकारी सम्राट विक्रमादित्य प्रथम (६४२-८१ ई.) से विदान धर्मोत्तर (७२५-५०ई०) के टिप्पण पर अपनी अभिन्न प्रतीत होता है-'विक्रम' शब्द 'साहस' शब्द का टीका लिखी है । और परवादिमल्ल के एक प्रशि य को पर्यायवाची है, और विक्रमांक, साहमाक, माहसोत्तुग जैसे गुजरात के राष्ट्रकूट वायसराय कर्कराज ने शक ७४३- विरुद इम वश के, विशेषत विक्रमादित्य नामधारी नरेशों ८२१ ई.) के ताम्रशासन द्वारा दान दिया था"। अतएव के साथ उस काल मे भी मास इन परवादिमल्ल से सम्बन्धित नरेश राष्ट्रकूट कृष्ण प्रथम कल्याणीशाखा के समय भी, प्रयुक्त हुए मिलते हैं। यह (७५८-७३ ई० ही हो सकता है। इसी प्रकार, बिब- भी एक सम्भावना है कि राष्ट्रकूट दतिदुर्ग ने, जिसका क्षित "शत्रभयंकर" गंगनरेश श्री पुरुष मुत्तरस (७२६. राज्यारभ अब ८वी शती के दूसरे दशक मे हुआ माना ७७ ई.) से अभिन्न है। अनेक गग अभिलेखा में इस जाने लगा है, और जिसने उक्त चालुक्यो को परास्त (पगनरेश का एक विरुद 'अरिभयंकर', जो 'शत्रुभयकर' का भत) करके अपना राज्य शक्ति स्थापित की ही पर्यायवाची है, प्राप्त होता है-स्वय उसके अपने उनका 'साहसत्तग' विरुद भी अपनाने का प्रयत्न किया राज्यकाल के एक अभिलेख मे जो शक ६६८ (ई० ७७६) हो, अथवा 'साहमांक' को कुछ परिवर्तित करके। में अकित हुआ था यह विरुद प्राप्त है"। इस अभिलेख इसी प्रकार अकलङ्कीय अनुश्रुति का राजा हिममें विमलचन्द्र का भी उल्लेख है और उक्त उल्लेख से शीतल भी कलिंग देश का वह नरेश जो 'त्रिकलिंगाधिप्रतीत होता है कि उक्त आचार्य आठवी शती ई० के मध्य पति' कहलाता था, और जो मूलत: बौद्ध था तथा जिसके से पूर्व हुए होने चाहिए"।
स्वय के अथवा निकट पूर्वज के समय मे चीनी यात्री ७वी तो ई० के अन्तिम चरण तथा ८वी शती के हुएनमाग ने ६४३ ई० मे कलिंग की यात्रा की थी, रहा प्रारम्भिक दशकों के कई चालुक्य अभिलेखो मे देवगण के प्रतीत होता है । कलिंग देश के हीरक-रेणु तट पर स्थित किन्ही 'पूज्यपाद के शिष्यों एवं प्रशिष्यो के उल्लेख प्राप्त रत्नपुर या रत्नसचयपुर नाम का एक नगर भी उस युग होते हैं और इन पूज्यपाद को अलक्तक नगर (वर्तमान में था। वही उक्त महाराज हिमशीतल के समक्ष अकलङ्क मल्तेम, महाराष्ट्र मे) का निवामी रहा सूचित किया गया देव का वह इतिहाम प्रसिद्ध शस्त्रार्थ बौद्ध विद्वानों के माथ