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४बर्ष ३५ कि.२
अनेकान्त
अविस्मरणीय वाक्य सप्त शैलादि' आदि है, जिसके अनु- उल्लेख या उनके उद्धरण आदि अपने ग्रन्थों में देते पाये सार वह तिथि शक ७७७ (या ८५५ ई०) बैठती है। जाते हैं। साहसत्तुंग को चीन्हने मे उसने अपनी असमर्थता भी स्वी- जैनेतर विद्वानो मे पतञ्जलि के महाभाष्य (ईसापूर्व कार की"। तदुपरान्त प्रायः किसी भी विद्वान ने हिम- २री शती), वसुबन्धु के अभिधर्मकोष (ल. ४००ई०) शीतल की इस पहिचान पर सन्देह नहीं किया और अनेको दिङ्नाग के प्रमाण समुच्चय (३४५-४२५ ई०) और ने ७८८ ई० की तिथि को भी मान्य किया।
भर्तृहरि के वाक्यपदीय (५६०-६५० ई०) से अकला जहां तक साहसत्तुग की चीन्ह का प्रश्न है, डा० अपने ग्रन्थो मे उद्धरण देते है, उनके मतों की आलोचना पाठक ने उसका समीकरण पहले राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्र० करते है, अथवा उनका प्रत्यक्ष या परोक्ष संकेत करते हैं, (७५६-७२ ई० के साथ किया था, और डा० स० च० स्वयं अकल देव के मूविदित टीकाकार हैं- अभयविद्याभूषण ने उनका समर्थन किया था। कालान्तर मे
चन्द्र (१२वी शती), प्रभाचन्द्र (६८०-१०६५ ई०), वादिपाठक ने अपने पूर्वमत मे संशोधन करके उसका समीकरण राज (१०२५ ई०), अनन्तवीर्य द्वि० (ल० ८२५ ई.) राष्ट्रकुट दन्तिदुर्ग (७४५-५६ ई०) के गाथ कर दिया। और अनन्तवीर्य प्र. (ल. ७२५-५० ई०)। इसके अतितब से इस पहिचान पर भी किसी विद्वान ने प्रश्न चिन्ह रिक्त, जिनसेनीय आदि पुराण (ल. ८३७ ई.), हरिभद्रनही लगाया-केवल डॉ. अल्तेकर एव डा. उपाध्येय ने मरि ल. ७२५-६२५ ई.) की अनेकात : उसे एक निराधार अनुमान मात्र माना"।
जिनसेन पुन्नाट के हरिवश (७८३ ई०), वीरसेनीय धवला उपरान्त काल में कई विद्वानों ने आठवी शती ई० टीका (७८० ई०) तथा सिद्धसेनगणि के तत्त्वार्थभाष्य के उत्तरार्ध वाली (७८८ ई० आदि) तिथि को सर्वथा (ल. ७५० ई०) मे अकलङ्कदेव का गुणगान, प्रशसा या अस्वीकृत कर दिया और परम्परागत तिथि वि० स० ७०० प्रत्यक्ष वा परोक्ष उल्लेख प्राप्त है"। जिनदाम गणि (ई०६४३), की एम्भवनीयता की पुष्टि करने का प्रयत्न महत्तर, जिनने अपनी नन्दिचूणि शक ५६८ (या ६७६ ई०) किया"। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने तो स्वय अकलङ्क मे पूर्ण की थी, अपनी निशीथचूणि मे अकलङ्ककृत सिद्धितथा उक्त शताब्दियों के अन्य जैन एव जैनेतर विद्वानों
विनिश्चय को एक 'प्रभावक शास्त्र कहते है। द्वारा किये गये पारस्परिक उल्लेखों आदि के आधार पर अकलङ्क देव की कृतियो का भर्तृहरि (५६०-६५० उनका पूर्वापर प्रकट करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि ई.) कमारिलभट (200-६६. f. अकलडू सातवी शत्ती ई० मे ही हुए है" । किन्तु इन मब (६३५-४० ई० की मतियो के साथ तुलनात्मक अध्ययन विद्वानों ने अकलङ्कीय अनुश्रुति के हिमशीतल एवं माह- करने से लगता है कि जैसे ये सब विद्वान प्रायः समसामसत्तंग वाले पक्षों का स्पर्श नहीं किया और न ६४३ ई. यिक एव दार्शनिक क्षेत्र में साक्षात् प्रतिद्वन्द्वी थे-वे की परम्परागत तिथि की ऐतिहासिकना पर ही कोई
परस्पर आलोचना-प्रत्यालोचना करते प्रतीत होते हैं। गदेषणा की।
अकलडू की उनके साथ अल्पाधिक समसामयिकता अवश्य इन महान आचार्य से सम्बन्धित मूल साधन स्रोतो, रही लगती है, कम से कम उनके तथा अकलङ्क के मध्य अनुश्रुतियो एवं आधुनिकयुगीन चर्चाओ के निरीक्षण- दो-एक दशको से अधिक का अन्तराल रहा नहीं लगता। परीक्षण से निम्नोक्त तथ्य उभर कर सम्मुख आते है- अकलडू की परम्परागत तिथि, वि० स० ७ ० (या
अकलङ्कदेव उमास्वामि (प्रथम शती ई०) और मम- ६४३ ई.) की मान्यता की प्राचीनता कम से कम हवी न्तभद्राचार्य (२री शती ई०) के टीकाकार सुविदित है, शती ई० मिलती है। तथा वह श्रीदत्त (ल. ४०० ई०), देवनन्दि-पूज्यपाद भुवनप्रदीपिका मे वह तिथि कलि सं० ११२५ पिंगल (४६४-५२४), सिद्धसेन दिवाकर (५५०-६०० ई०), पात्र- वर्ष के रूप में प्राप्त होती है। एक लोकानुथुति के अनुकेसरि (५७५-६२५ ई.) और मल्लवादी (६००)ई. के मार कलिसवत का प्रारम्भ प्रथम नन्द नरेश के सिंहा