Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 35
________________ ब. सोतल प्रसाद जन्मशताब्दी समापन समारोह इस शती के अप्रतिम जिनधर्म प्रचारक एवं समाज सुधारक पूज्य ब्रह्मचारी शीतल प्रसादजी का जन्म लखनऊ मे १८७८ ई० मे हुआ था और उनका देहान्त भी इसी नगर में फरवरी १९४२ में हुआ, जहां डालीगंज स्थित जैन बाग मे कृतज्ञ समाज ने उनकी समाधि का निर्माण किया । जैनधर्म के इस युग के इस सर्वोपरि मिशनरी ने समाज एवं संस्कृति की सेवा, पत्रकारिता तथा जैन वाङ्मय के अध्ययन, चिन्तन एवं प्रसार के प्रति स्वय को पूर्णतया समर्पित करने हेतु रेलवे की अच्छी-खासी नौकरी से त्यागपत्र दिया, गृहस्थ जीवन को तिलांजलि दी और अपने मिशन के अनुरूप कार्य करने के लिए परिवाजक ब्रह्मचारी का जैन शास्त्र विहित वेष धारण किया तथा उसी धुन मे सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया। जब स्व. आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' ने सरसावा मे वीर सेवामदिर की स्थापना की थी तो उन्होने इसका उद्घाटन ब्रह्मचारीजी के करकमलो द्वारा ही कराया था। ब्रह्मचारीजी उनके पत्र 'अनेकान्त' के भी सदैव बडे प्रशंसक रहे। ब्रह्मचारीजी के निधन पर मुख्तार साहब ने निम्नोक्त उद्गार व्यक्त किए थे-'ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, जैन के एक बड़े ही कर्मठ विद्वान थे। जैनधर्म और जनसमाज के प्रति उन्हे गाढ प्रेम था, लगन थी और साथ ही उनके उत्थान की चिन्ता थी-धुन थी। उसी धुन में वे दिन-रात काम किया करते थे-लिखते थे, लम्बे-लम्बे सफर करते थे, उपदेश तथा व्याख्यान देते थे और अनेक प्रकार की योजनाए बनाते थे। उन्हें जरा भी चैन नहीं था और न वे अपना थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ जाने देते थे। जहाँ जाते वहाँ शास्त्र बाँचते, अपने पब्लिक व्याख्यान की योजना कराते, अग्रेजी पढे-लिखो मे धर्म की भावना फूकते, उन्हें धर्ममार्ग पर लगाते, सभा-पाठशालादि की स्थापना कराते और कोई स्थानीय सस्था होती तो उसकी जांच-पड़ताल करते थे। साथ ही परस्पर के वैमनस्य को मिटाने और जनता मे फंसी हुई कुरीतियों को दूर कराने का भरसक प्रयत्न भी करते थे। प्रत्येक चौमासे मे अनुवादादि रूप से कोई ग्रन्थ तैयार करके छपाने के लिए प्रस्तुत कर देना और उसके छपकर प्रचार में आने की समुचित योजना कर देना तो उनके जीवन का एक साधारण-सा कम हो गया था। उनमे एक बड़ी विशेषता यह थी कि वे सहनशील थे-विरोधों, कटु आलोचनाओं, वाक्प्रहारों और उपसों तक को खुशी से सह लिया करते थे और उनकी वजह से अपने कार्यों में बाधा अथवा विरक्ति का भाव नही आन देते थे। इसी गुण और धुन के कारण, जिसका एक समाजसेवी में होना आवश्यक है, वे मरते दम तक समाज की सेवा करने में समर्थ हो सके । नि.स्सन्देह उन्होंने अपनी सेवाओं द्वारा जनसमाज के ब्रह्मचारियों एव त्यागीवर्ग के लिए कर्मठता का आदर्श उपस्थित किया।' पूज्य ब्रह्मचारीजी के जन्म शताब्दी समारोह का प्रारभ १९७६ ई. में लखनऊ में तथा अ. भा. दि० जैन परिषद के भिण्ड अधिवेशन में किया गया था और समापन २५ अक्तूबर १९५२ को लखनऊ में उनकी समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित करके तथा श्रद्धांजलि सभा करके किया गया। परिषद के अध्यक्ष श्री डालचन्द जैन सागर आयोजन में मुख्य अतिथि थे और हम स्वागताध्यक्ष थे। समाचार भारती के अध्यक्ष श्री अक्षयकुमार जैन तथा देश के विभिन्न भागों से आये अनेकों विद्वानों एवं गणमान्य महानुभावों ने पूज्य ब्रह्मचारीजी के प्रति भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। हमने सभी समाबत बन्धुबों का स्वागत करते हए, पूज्य ब्रह्मचारीजी के जीवन, व्यक्तित्व, कृतित्व एवं समाजसेवाओं पर प्रकाश डाला। उपस्थित जनसमूह ने ब्रह्मचारीजी को प्रेरणाप्रद स्मृति को स्थायी बनाये रखने की कामना व्यरू की। यह समारोह परिषद के कानपुर अधिवेशन की प्रेरणा पर जैनधर्म प्रवनी सभा लखनऊ के तत्वावधान में सम्मम्ममा पा, अतएव उस सभा के अध्यक्ष श्री इन्द्रचन्द्र जैन द्वारा धन्यवाद दिये जाने के साथ समाप्त हबा किन्तु क्या पूज्य ब्रह्मचारी सीतलप्रसावजी ले बुनुल्यों के प्रति मात्र इतना कृतज्ञता ज्ञापन बलम् है? -०ज्योति प्रसावन

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