Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 33
________________ जरा सोचिए गतियां चल रही हैं-एक-दूसरे की आलोचना मे तत्पर आते है । जो वाणी तीर्थङ्करदेवो से प्रवाहित होती रही हैं। एक-दूसरे को हीन समझ रहा है, हर अन्य हर अन्य है वह इन्ही उपाध्यायो के क्रम से भव्य जीवों तक पहुंचती की कमजोरियां बताने मे लगा है, अपनी ओर नही देखता। रही है। यदि व्यक्ति इस प्रक्रिया मे मोड ले और दूमरो की अपेक्षा कालान्तर मे जब अंग-पूर्वो के ज्ञाता उपाध्यायों का पहिले अपने को देखे तो हर व्यक्ति जिन, जैन और जैनी विच्छेद होता गया तब उनका काम आचार्यों, और साधुहो सकता है। गण ने मँभाला और उनकी अनुपस्थिति मे इस कार्य की जैनी बनने के प्रयत्नो मे पहिले थावक बनना जरूरी प्रति अल्प ज्ञान आर अल्प चारित्रधारी त्यागी विद्वान करते रहे । जो विद्वान व्रत और प्रतिमाधारी नही थे वे है । जो श्रद्धा, विवेक और क्रियाशील होता है, वह श्रावक भी थावक के स्थूल आचार का पालन करते हुए इस क्षेत्र कहलाता है। हम देखे कि हम तत्त्वो एव देव, शास्त्र, मे गतिशील रहे। फलत. भव्य जीवो को जिनधर्म का गुरुओ में कितनी श्रद्धा रखते है ? वर्तमान में देव तो है ज्ञान व चारित्र सम्बन्धी मूर्त-रूप फलित होता रहा । नही, शास्त्री के रहस्य को हम जाने नही और गुरुओ की निन्दा करते हो तो हम कैसे श्रावक हो सकते है ? श्रावक चुकि जैन धर्म वीतराग-धर्म है और धार्मिक प्रसंग में होने से पहले हमे अप्टमूल गुणों को समझना चाहिए और वीतराग-रूप को नमस्कार का विधान है। अत: पूर्णचारित्र उन्हें धारण करना चाहिए। हम उन्हे धारण न करे और की मुख्यता के आधार पर मूल-मत्र णमोकार मे सकलअपने को थावक घोषित करे यह सर्वथा विसगति ही है- चारित्री उपाध्याय परमेष्ठी को नमन कर उनके प्रति जैसा कि आज चल रहा है। आज कुछ लोग तो कुदेवो मे कृतज्ञता का ज्ञापन है और अल्प-चारित्री या अवती देव, कु-शास्त्रो मे शास्त्रो की कल्पना किए बैठे है, और विद्वानों को इसमे ग्रहण नही किया गया है । यद्यपि ऐसे कुछ को तो गुरु फूटी ऑखो भी नही सुहाते । गोया, छिद्रा स्थूल-चारित्रधारी विद्वान पहिले भी होते रहे है जो स्वतत्र न्वेषण एक व्यापार बन बैठा है। उपगूहन और स्थिति- आजीविका से निर्वाह कर परमार्थ रूप धर्मज्ञान देकर करण की बात ही नही होती-सुधार के नाम पर निन्दा भव्य-जीवा का उपकार करते रहे हैं। उन विद्वानो की मे इश्तिहार तक निकाले जाते है । यदि ऐमे लोग अपने को आजीविका पठन-पाठन पर आथित नही होती थी। फलतः देखे कि वे कितने गहरे में है और श्रावक के योग्य अपनी वे स्वतन्त्र और निर्भीक भी थे। वस्तुत. धर्मज्ञान क्रयक्रियाओं के प्रति कितने सावधान हे तो उन्हें सहज ही पता विक्रय का धदा नहीं है। अभी तक यह प्रकट नही हो चल जाय कि वे स्वय भी भ्रष्ट हैं । भ्रष्ट लोग भ्रष्ट को पाया कि विद्वानों में पारिश्रमिक लेकर धर्म-जान धान की भ्रष्टता से कैसे बचा सकेंगे और कैसे जिन, जैन या जी परम्परा कब से चालू हुई? हो सकता है वाहाण सभ. बन सकेगे? यह विचारणीय है ? जरा सोचिए।' दाय का प्रभाव हो। बाद के काल में तो विद्वानो मे इस व्यवसाय-परमरा का मूल कारण विद्वानो का अर्थाभाव ३. विद्वानों की महत्ता ही परिलक्षित होता है। णमो उवमायाणं' ये अश णमोकार मत्र के मूल पाठ जो भी हो, यह तो निर्विवाद है कि विद्वानों ने धर्मका है. जिसे प्रत्येक उपामक हृदय में सेंजोकर रखता और रक्षा और उसकी प्रभावना में कोई कोर-कसर नही छोड़ी धर्म जानने के लिए उपाध्यायो की शरण जाता रहा है। उन्होंने तन-मन का पूरा योग देकर मन्दिरो, सरस्वतीतीर्थडरो की दिव्य ध्वनि के पश्चात् उपाध्याय गणधर देव भवनो, शिक्षा संस्थानो आदि की स्थापना का मार्ग समाया भव्य जीवों को धर्ममार्ग बतलाते रहे है । उपाध्याय पूर्ण उनके निर्माण मे योग दिया, स्थान-२ पर भ्रमणी श्रत-अंग पूर्वो के पाठी होते है और वे प्रमुख उपाध्याय उनके लिए चन्दा इकट्ठा किया। उनकी व्यवस्था और हैं। उनसे कम अंग-पूर्व भाग के ज्ञाता लघु लघु श्रेणी में पठन-पाठन जैसी सभी जिम्मेदारियां उठाई। बिहानी

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