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अनेकान्त
-जो उत्तम गुण और भोगों का सेवन और लोक में संस्कृति के उजागर तर-तम रूप हैं जो उत्तरोत्तर निर्मलता उत्तम गुण-कर्मों को करता है वह पुरुष और पुरुषार्थी है। लिए हुए हैं। अनेकान्तवाद, स्यावाद संस्कृति का दर्शन तब हम लोक में उत्तम गुणों में न रह, हिंसा करते हुए, कराने वाले हैं-आदि ! मंठ और चोरी प्रेरित जैसी आजीविका के सहारे जीते हुए इसके विपरीत आधुनिक युग का मानव जिन्हें संस्कृति बाह्याडम्बरों-जाति, सम्प्रदाय, वेश-भूषा, भाषा, प्रान्त पोषण के लिए प्रयुक्त कर रहा है और सस्कृति का नाम आदि के पक्षपात जैसे यत्रों से पुरुषत्व और पुरुषार्थ का माप देने में लगा है वे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय कर रहे हैं यानी असली पुरुषत्व और पुरुषार्थ के रूप को और योग आदि विभाव मानव और आत्मा के लिए असंविकृत-असस्कृत बनाने मे लगे हैं।
कृतियां हैं। ____ आत्मा के विषय में जब आचार्य कहते है-'भेद
उक्त सन्दर्भ में संस्कृति क्या है ? जरा सोचिए !' विज्ञानतो सिद्धा सिद्धा ये खलु केचन'–सिद्ध होने के लिए
२. जिन, जैन और जैनी जीव और पुद्गल के भेद का ज्ञान होना जरूरी है। तब लोग उस भेद-विज्ञान की दिशा, जाति-सम्प्रदाय, भेष-भूषा
वस्तु की स्वभाव मर्यादा के अनुसार वस्तु के गुणभाषा और प्रान्तवाद आदि की ओर मोड रहे हैं, आत्मा धमा का उसस पृथक् नही किया जा सकता । इस सि को पर-के रंग में रंग रहे हैं, परिग्रह की पकड़ को दृढ़
के अनुसार जिन, जैन और जैनी ये तीनों शब्द तीन होते करने में लगे है और इस तरह वे संस्कृति और आचार्यों
हुए भी एक ही व्यक्ति को इगिस करने वाले है। अतः की अवहेलना ही कर रहे है।
धर्म-धर्मी मे अभेद है और इनमें परस्पर गुण-गुणीपना है।
कर्मो पर विजय पाने वाले जिन, 'जिन का धर्म जैन और यदि हम संस्कृति को भिन्न रूपो मे देखना चाहें तो
जैन का अनुगमनकर्ता जैनी है । इसके विपरीन जो 'जिन' हम कहेंगे-मन-वचन-काय द्वाराकिसी को न सताना, याथातथ्य व्यवहार करना, पराई वस्तु का हरण न ।
नहीं, वह 'जन' नहीं, और जो 'जैन' नही, वह 'जैनी' भी करना, ब्रह्मचर्य पालन करना और इच्छा व सग्रहो के
नहीं। फलत:-उक्त परिप्रेक्ष्य में वर्तमान में जैनी का त्याग की ओर लगना इन पांच नियमो पर सभी ने जोर ।
सर्वथा अभाव है। यदि जैनी बनना हो तो जिन बनना
चाहिए। दिया है किसी ने कम और किसी ने ज्यादा। ये सभी दर्जे मानवता के निखार के हैं। संसारी आत्मा को पर
जिन या जैन बनने के लिए तीर्थङ्कर ऋषभदेव से मात्मा बनने में सहायक हैं, तद्रूप हैं। अतः ये मानव
लेकर महावीर पर्यन्त और मुक्ति पाने से पूर्व सभी अरसंस्कृति या आत्म-संस्कृति कहलाएगे और इन्हें हिन्दू
हन्तों ने जो किया, वही हमें करना पड़ेगा। हमें गुप्ति, मुस्लिम जैसे फिरकों के पोषक न होने से, हिन्दू या मुस्लिम
समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह जय और चारित्र के मार्ग संस्कृति नही कहा जाएगा। यतः-इन पांचो के होने न
से जाना पड़ेगा। अणुव्रतों और महाव्रतों की सीढ़ियों पर होने से इन फिरकों के रूपों पर कोई प्रभाव नही पड़ता
चढना पड़ेगा। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र
को धारण करना पड़ेगा-इनकी पूर्णता में ही हम जिन, पांचो हों तब भी हिन्दू या मुसलमान हुआ जा सकता है
जैन और जैनी बन सकेंगे। जबकि आज हम इन सभी से और न हो तब भी हुआ जा सकता है। ऐसे ही
दूर हैं और लगातार दूर जाने के प्रयत्नों में लगे हुए हैं। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र संस्कृति हैं। दूर होने का उक्त सन्दर्भ, किसी व्यक्ति विशेष के सिद्ध दशा साक्षात् संस्कृति है और अरहंत, आचार्य, उपा- सम्बन्ध में हो ऐसा नही है, यह तो आज सभी पर लागू ध्याय, साधु के रूप संस्कृति के सूचक हैं। पहिला गुण- होता है चाहे वह किसी भी श्रेणी का क्यों न हो? आज स्थान असंस्कृति सूचक है, दूसरा संस्कृति से गिरने की श्रावक श्रावक में, श्रावक-साधु में, साधु-साधु में, धनिकसूचना देता है, तीसरा दुलमुल और आगे के गुणस्थान धनिक, धनिक-निर्धन, और निर्धन-निर्धन में परस्पर विसं