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श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमा
0 पदमचन्द्र शास्त्री, दिल्ली
जैनाचार्यों ने श्रावकाचार का वर्णन करते हुए श्रावक 'मूलवत तान्यचा पर्वकर्माकृषिक्रियाः । की ग्यारह प्रतिमाओ का वर्णन किया है। ग्यारहवी प्रतिमा दिवानवविध ब्रह्म सचित्तस्य विवर्जनम् ।।' का नाम उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है। दशवी प्रतिमा तक उद्दिष्ट परिग्रह परित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता । त्याग का सर्वथा विधाम नही है और उससे आगे श्रावक तद्वानी च वदंत्येतान्येकादश यथाक्रमम् ॥' और मुनि दोनों के उद्दिष्ट का सर्वथा त्याग है ।
-कल्प ४४१८५३-८५४ । प्रारम्भिक आचार्यों में जैसे कुन्दकुन्द, उमास्वामी, इसके बाद उन्होंने ११ प्रतिमाओं के विषय में यह समन्तभद्र, सोमदेव, जिनसेन, आमतगति और पमनन्दि भी स्पष्ट किया है कि पहिली छ: प्रतिमाओं के धारक आदि ने इस प्रतिमा का सामान्य निर्देश किया है-इसका
दश किया ह-इसका गृहस्थ, सातवी से नवमी प्रतिमा तक के ब्रह्मचारी और अभेदवर्णन किया है । ग्यारहवी शताब्दी के पूर्व की रचना अन्त की दो प्रतिमाओं वाले भिक्ष कहलाते हैं। सबसे ऊपर 'प्रायश्चित चूलिका' में भी एक क्षुल्लकपद का विवेचन मिलता है । बारहवी शताब्दी मे वसुनन्दी आचार्य ने इस पडरगाहणो ज्ञयास्त्रय. स्युब ह्मचारिणः । प्रतिमा को प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक इन दो भिक्षुको द्वौ तु निर्दिष्टौ तन. स्यात्सर्वतो यति. 1०५६।' भेदो मे विभक्त कर दिया। यह कैसे और क्यो हुआ यह
__ आदिपुगण में आचार्य जिनसेन ने ग्यारहवी प्रतिमा विचारणीय है। विचारार्थ पूर्ववर्ती कुछ आचार्यों के मतव्यो ।
के सन्दर्भ मे निम्न मन्तव्य प्रकट कियाको उद्धृत किया जा रहा है
'त्यक्तागारस्य मद्दष्टे, प्रशान्तम्य गृहेटिन. । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने चारित्र पाहुड में मात्र प्रति
प्राग्दीक्षोपयिकाकालादेकशाटकधारिणः ॥३८।१५८॥ माओं के नाम दिए है
त्यक्तागारस्य तस्यातस्तपोवनमुपेयुषः । दसण-वय-सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य ।
एकशाटकधारित्व प्राग्वदीक्षामिप्यते ॥३६७७॥ वभारभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ट देमविरदो य ॥२२॥'
तेषां स्यादुचित लिंग स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । -दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तत्याग एकशाटक धारित्व सन्यासमरणावधिः ॥४०॥१६॥ रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रह त्याग, उक्त सभी श्लोकों में एकशाटकघारित्व रूप को पुष्ट अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग इस प्रकार ये देशविरत किया गया है जैसे कि पूर्वाचार्यों को भी इष्ट था उन्होंने श्रावक के ग्यारह भेद हैं।
भी दो वस्त्रधारी और एकवस्त्रधारी जैसे कोई दो भेद आचार्य उमा स्वामी ने प्रतिमाओ का वर्णन नहीं नहीं किए । आचार्य अमितगति और पद्मदन्दि ने भी पूर्वकिया और आचार्य समन्तभद्र ने इस प्रतिमा का वर्णन मतों की पुष्टि की और ग्यारहवी प्रतिमा के दो भेद नहीं खण्डचेल धराः' मात्र के रूप में किया है। उन्होने क्षुल्लक किए। इसके बाद ग्यारहवी शताब्दी से पूर्व की रचना व ऐलक जैसे कोई भेद नहीं किए और ना ही एक या दो 'प्रायश्चित्त चूलिका' के देखने से भी स्पष्ट प्रतिभासित वस्त्र का उल्लेख किया। आ. सोमदेव ने भी ग्यारह होता है कि उस शती तक यथावत् ग्यारहवी प्रतिमा एक प्रतिमाओं के नाम मात्र का संकेत दिया है
रूप में चलती रही। तथाहि