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विचारणीय-प्रसङ्ग
उसके विकल्पातीत चंतन्य को ही रस मान ले। हमारे दरअसल बात ऐसी है कि जैसे कोई विवाहित पुरुष स्वी मत में शुद्ध आत्मा विकल्पातीत होने से न शातरस को को दुखदायी जान उसे छोड़ने का सकल्प कर बैठा और स्पर्श करती है और ना ही अशातरस को। वह तो मात्र उसे छोडकर साधु भी बन गया। उसने व्यक्ति-रूस स्वी 'चिदेकरसनिर्भरः'-एक चैतन्य रस पूर्ण है-जो है मो को तो छोडा, पर वासनावश स्त्री-जाति का मोह न न्यान है । फलत. जहाँ भी शान्त-रस जैसा कथन हो वहा सभी सका। फलत.-वासनावश मुक्ति में ही स्त्री की मूंठी प्रकार के रस शांत हो गए ऐसा अर्थ उचित है । शाति का कल्पना कर बैठा और सुखी होने लगा । जबकि मुक्तिभाव भी शान्तनामारस नही होना चाहिए। आत्मा, रस नामा कोई स्त्री ही नही है । कोरा संकल्प और मन की जैसे लौकिक अनुभवो से अतीत-मात्र चैतन्यही है। म्रान्ति है। वैसे ही शान्तरस की स्थिति है। ये भी संसारी
एक बात और । रस के प्रसंग में 'साहित्यदर्पणकार' जीवो की वासना द्वारा कल्पित भाव है जो शुद्ध जीवों में के मत मे "विभाव, अनुभाव सचारी भावो से अभिव्यक्त- भी कल्पित किया जाने लगा। वास्तव मे उनमें इसका पुष्ट स्थायी भाव रस है, जो कि मन वालो के होता है--- कोई अस्तित्व नही। यदि मुक्ति नामक कोई स्त्री हो तो "विभावेनानुभावेन व्यक्तः संचारिणा तथा। उसे खोजा जाय । रसतामेति रत्यादि स्थायीभावः सचेतसाम् ॥ जब हम 'अजयंष्टव्यम्' प्रसग पर विचार करते हैं तब
---साहि० दर्पण ३२ हमारे रोंगटे खड़े हो जाते है और सोचते हैं कि यदि उस इसका खुलासा भाव यह भी है कि रस का मूल समय आग्रह-वश 'अज' शब्द का अप्रासंगिक अर्थ 'बकरा' आधार मन की वासना है । जिनके मन नही होता उनके न हुआ होता तो धर्म में हिमा-रूप अनर्थ का प्रवेश न वासना नहीं होती और जिनके वासना नही होती उनके हुआ होता और ना ही लोगों को वीतरागी तीर्थकर की रस का अनुभव नही होता । वे तो रस के विषय में काष्ठ सर्व-तत्त्व-ममन्वित--विधि-निषेध रहित, निर्विकल्प, अभेददीवार और पत्थर की भॉति अकिचित्कर-निष्क्रिय होते अखण्डधारामयी दिव्यध्वनि को अहिंसा जैसे एकांगी सबिहै। तथाहि
कल्प उपदेश की प्रमुखता का रूप मानना पड़ा होता'न जायते तदास्वादो विना रत्यादि वासनाम।' जो कि लोगो द्वारा तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप अपनी 'सवासनानां सम्यानां रसस्यानुभवोभवेत् । कल्पना में मानना पडा और आज तक उसी मान्यता में निर्वासनास्तुरकान्तः काष्ठकुड्याश्मसन्निभा ॥' चला आ रहा है। लोग आज भी कहते हैं-'महाबीर ने
मे आत्म जहाँ परिस्थिति को देखकर उस समय अहिंसा का प्रमुख उपदेश मन ही नही है वहाँ यदि हम किमी रस की कल्पना करते दिया'-गोया, वीतरागी महावीर उस समय जीवों की है तो वह कल्पना 'खर-विषाणवन्' मात्र कल्पना और दया के प्रति रागी और जीवों की रक्षा के प्रति बेचन अकिंचित्कर ही होगी-वास्तविक नही । फिर शुद्धात्माओ हुए हों। समझ में नही आता कि वीतरागी ने विकल्पमे शान्त-रस की पुष्टि के लिए उसके मूल कारण विभाव, प्रेरित मात्र अहिमा जैसे किसी एक जातिरूप धर्म का उपअनुभाव और सचारी भाव भी कल्पित करने पड़ेगे और देश दिया हो? उनकी दिव्यध्वनि तो सर्वतत्त्व-समुदित मन भी कल्पित करना पड़ेगा, जिनका कि श्रद्धात्माओ मे निरक्षरी थी जिसे गणधर देव ने ही भेद-रूप मे गंथा। सर्वथा अभाव है। आशा है मनीपी विचारेगे और शुद्धा- 'गान्तरस.' पद भी ऐसा ही है, यदि प्रसग के अनुसार त्माओ को बिसगतियो से दूर रखने का प्रयत्न करेंगे- इमे निरास अर्थ में न लेकर शान्त-रस या शान्ति के अर्थ मे उनको सासारिक व्यवस्थाओ मे लौटाने का नही । अन्यथा लेने का विचार किया गया तो शुद्धजीवो मे भी रस हेतु से इसके दूरगामी-(मुक्ति से पुनरावृत्ति या अवतारवाद की ही विकार कल्पित करने पड़ेगे जैसे कि लोग आज मुक्ति-स्त्री पुष्टि जैसे) अनेक विरुद्ध परिणाम सिद्ध हो सकेगे जो जैन के सबंध में प्रसिद्ध करने लगे हैं। वे कहते है कि जब आगम के मूल पर चोट ही होगे।
जैनियो के मुक्त जीवों ने स्त्री को नहीं छोड़ा है-वे मुक्ति