Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 26
________________ २४, बर्ष ३६ कि.१ अनेकान्त का स्त्री के सुख में मग्न हैं, तब हमें ही स्त्री से वैराग्य का सत्त-महाधवलप्रति के अन्तर्गत ग्रन्थ रचना के आदि उपदेश क्यों दिया जाता है आदि । आत्माके प्रसंग में शान्त में 'सन्तकम्मपंजिका' है। इसके अवतरण में 'सत्त' शब्द का प्रयोग विकारों के उपशम या अभाव के लिए ही शब्द भी मेरे देखने में आया है-'पुणोतेहितो सेसट्ठारहुआ है, इस पर फिर कभी सोद्धरण लिखेगे। साणियोगद्दाराणि सत्तकम्मे सव्वाणि परुविदाणि ।'-यह 'संत' 'संतकम्मपंजिका' ताडपत्रीय महाधवल की प्रति के २७वें पृष्ठ पर पूर्ण हुई है और षट्खंडागम पुस्तक ३ में इसका इस शब्द के सम्बन्ध में अब हम नया क्या लिखे? वे ही चित्र भी दिया गया है। (देखें-प्रस्तावना, पखंडागम आचार्य वाक्य हमें प्रमाण हैं जिन्हें हम लिख चुके हैं। षट्खंडागम के सातवें सूत्र में 'संतपरुवणा' पद का पुस्तक ३ पृ० १ व ७) अतः इस उद्धरण से इस बात में प्रयोग मिलता है। इसी पुस्तक के इसी पृष्ठ १५५ पर तनिक भी सन्देह नही रहता कि प्रसंग मे 'संत' या सत्त शब्द सत्त्व-आत्मा के अर्थ में ही है । और मजलं का अर्थ एक टिप्पश भी मिलता है जो तत्वार्थराज वा० के मूल का कुछ अंश है-'सत्वं ह्यव्यभिचारि' इत्यादि । ऐसे ही पट् मध्य है जो 'आत्मा को आत्मा के मध्य अर्थ ध्वनित करता खंड़ागम के आठवे सूत्र मे 'सत' पद है। यथा-सतपरुवण हुआ आत्मा से आत्मा का एकत्वपन झलका कर आत्मा को अन्य पदार्थों से 'असयुक्त' सिद्ध करता है: दाए""' इसके विवरण में 'सत् सत्त्वमित्यर्य.' भी मिलता है। इसी पुस्तक में पृ० १५८ पर कही से उद्धृत एक गाथा एक बात और । आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमगर की भी मिलती है। यथा-'अत्थित्त पुणसत अस्थित्तस्स य गाथा २६ में 'अत्तमझ' पद का और समयमार की गाथा तहेव परिमाण ।" इस गाथा के अर्थ मे लिखा हैकि- १५ मे 'संतमज्म' या 'सतज्म' का प्रयोग किया है और अस्तित्व का प्रतिपादन करने वाली प्ररूपणा को सत्प्ररूपणा नियमसार की उक्त गाथा की सस्कृत छाया में अत्तमज्झं कहते हैं । यहाँ भी 'सत' शब्द सत् अर्थ मे है । का अर्थ 'आत्म-मध्य' किया है । इसी प्रकार 'सतमज्झ' या उक्त पूरे प्रसग से दो तथ्य सामने आते है। पहिला 'सत्तमज्झ' की सस्कृत छाया भी सत्मध्य या सत्त्वमध्य है यह कि सभी जगह 'सत' का प्रयोग 'सस्कृत के 'सत' शब्द यह सिद्ध होता है। के लिए हुआ है। यह बात भी किसी से छिपी नही कि विशेषावश्यक-भाष्यकार 'सत' का अर्थ 'सत्' कर रहे 'संतपरूपणा' मे उसी 'सत्' का वर्णन है जिसे तत्त्वाथ सूत्र- इसे भी देखि कार ने 'सत्संख्याक्षेत्र' सूत्र में दर्शाया है। यानी जिसे सस्कृत मे 'सत्' कहा वही प्राकृत मे 'सत' कहा गया है। अतः संतं ति विज्जमाणं एयस्स पयस्स जा पल्वया । सत का सत् स्त्रमावा. फलित है। दूसरा तथ्य यह कि गइयाइएस् वत्थुस संत पयपरवणा सा उ॥ र मन्त्र के भाव में है अत: सत. संत. सत्त्व. सत्त जीवस्स च जं संतं जम्हा तं तेहि तेस वा पयति । ये सभी एकार्थवाची सिद्ध होते है । पुस्तक के अन्त मे जो तो संतस्स पयाई ताई तेसु पल्वणया।' 'संतसुत्त-विवरण सम्मत्तं' आया है, उसमें भी 'संत' का 'संतस्य'-सतः पदानि तानि सत्पबानि तेषु प्ररूपणता प्रयोग सत् के लिए ही है। सत्पवप्ररूपणतेति। संत' शब्द के प्रयोग 'सत्' अर्थ मे अन्यत्र भी उप विशेषावश्यक भाष्य-४०७.४०८ लब्ध है । यथा---'सतकम्ममहाहियारे-जय.ध. अ. ५१२ स्मरण रहे यदि जैन मान्य शुद्धात्मस्वरूप को अन्यप्रस्तावना ध. प्र. पु. पृ. ६६ । मत-मान्य ईश्वर के रूपो से मेल बिठाने का प्रयत्न किया -'एसो संत-कम्मपाहुड उवएसो'-धव० पु० पृ० २१७। गया तो जैन ही लुप्त हो जायगा । -'बायरिय कहियाणं संतकम्मकसायपाहुडाणं । पृ० २२१

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