Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 21
________________ विवेकी सिानों के लिए "अपदेश संतमम" का अर्थ अप्रदेश के अन्त सहित पना और स्व अपेक्षा से अनन्यपना स्वयं शान स्वभाव का अन्तस्तत्व में करना भी यहां संगत नही है अतः अपदेस ही स्वपर प्रकाशक स्वभाव है अर्थात शान स्वयं को जानता शब्द में अप को देश का उपसर्ग मान कर (अपमान और हुआ भी शेयाकार को भी जानता रहता है, इसलिए शेयाअपराध शब्द के अर्थ की तरह से) देश से परे अपदेस कार रूप उपचरित पर पद (अपदेश) स्वयं मान स्वभाव समझा जाय तो अधिक युक्ति संगत होगा, तब इसका अर्थ का ही परिणमन होने पर भी ज्ञेय का उपचार अर्थात शेय (स्व क्षे-स्व स्थान-स्व पद) से परे अपदेश (पर क्षेत्र का विकल्प होने के कारण शेयाकार नाम पाता है अतः पर स्थान पर पद) के अन्त सहित अन्तस्तत्व में होता यह भेद कल्पना की अपेक्षा का ही कथन है लेकिन पंद्रहवीं है और यह अर्थ अप्रदेशी शांत अन्तस्तत्व मे अथवा अप्र- गाथा तो भेद कल्पना निरपेक्ष स्वभाव निर्देश करने वाला देश के अन्त सहित अन्तस्तत्व में की अपेक्षा निज शुद्धात्म है। उसमें द्रव्य-भेद, क्षेत्र-भेद, काल-भेद तथा भाव-भेद स्वरूप ज्ञायक स्वभाव की स्वानुभूति के अधिक निकट होने भी नहीं होना चाहिए इसलिए ऐसी भेद कल्पना निरपेक्ष से इसकी सही समझ पूर्वक अन्तस्तत्व का आगम अनुसार स्वभाव निज अन्नम्तत्व कैसा है यही यह गाथा इंगित कर युक्ति एवं तर्क सहित सही अनुमान होकर स्वानुभव की रही है। प्राप्ति हो सकती है। ___अपदेस (पर पद) के अन्त सहित निज पद (अंतस्तत्व) अपदेश संत शब्द मज्झं (अन्तस्तत्व) का विशेषण में का विश्लेषण करने पर यह अपदेस क्या है प्रश्न उठना होने से मज्झं का सूचक है तथा अन्तस्तत्व शब्द स्वयं भी भी स्वाभाविक ही है। इस प्रश्न का समाधान सम्यक किसी अन्त का सूचक है। जयसेनाचार्य ने अपदेश का अनेकान्त के द्वारा किया जावे तो निज पद (अन्तस्तस्व) स्पष्टीकरण इसी गाथा की टीका में "अपदिश्यतेअर्थो" येन रूप ज्ञायक स्वभाव पर की अपेक्षा से ज्ञेयाकार तथा स्व स भवत्वपदेशः शब्द द्रव्यश्रुतमिति द्वारा किया है अर्थात की अपेक्षा से ज्ञानाकार रूप है। तथा ज्ञेयाकार मे ज्ञेय का जिसके द्वारा अर्थ निर्देशित किये जायें सो अपदेश है यह विकल्प (उपचार) करने के कारण पर पद का आरोप शब्द अथात द्रव्य श्रुत ह । आता है अर्थात ज्ञेयाकार ज्ञान स्वय स्वभाव का परिणमन टीकाकार आचार्यों के कथन का मिलान करके उनके होने पर भी ज्ञेय का विकल्प (निक्षेप) होने के कारण इसमें अनुसार इस गाथा के अर्थ का युक्ति एवं तर्क पूर्वक अनुमान पर पद (अपदेश) का उपचार (विकल्प-निक्षेप) किया करें तो ज्ञात होता है कि शायक स्वभाव रूप भाव श्रुत जाता है। तात्पर्य यही है कि ज्ञेयाकार ज्ञान, स्वयं ज्ञान ज्ञान ही ज्ञेय अपेक्षा से शेयाकार तथा शान अपेक्षा से स्वभाव का ही परिणमन होने से वास्तव में ज्ञान स्वभाव ज्ञानाकार होने पर भी यह भेद कल्पना निरपेक्ष मावश्रुतका व्यवहार तो अवश्य है लेकिन ज्ञान स्वभाव का उपचार ज्ञान रूप निज अन्तस्तत्व का कथन नहीं बन सका क्योंकि (विकल्प-निक्षेप) नही होने के कारण वास्तविक पर पद इसके भेद करके समझाने पर प्रयोजन वश क्रमवर्ती जया(अपदेश) नही हो सकता अतः ज्ञेयाकार ज्ञान का अन्ताप कार रूप विशेष उपचरित पर पद के तिरोभाव का और अभाव नही मान कर प्रयोजन वश गोण रूप अभाव अर्थात अक्रमवर्ती ज्ञानाकाररूप निर्यम सामान्य (स्व-पद) के आविनिराभाव ही मानना चाहिए। ज्ञेयाकार ज्ञान प्रति समय भव का अनुमान तो होता है लेकिन शेयाकार रूप उपबदलते रहने से अन्य अन्य होता रहता है लेकिन ज्ञाना- चरित पर पद का ही अनुभव करते रहने से जानाकार रूप कार ज्ञान शास्वत एक रूप रहने से अनन्य ही है । निज स्व पद के स्वाद का अनुभव नहीं होता है क्योंकि शेयाकार शुद्धात्म स्वरूप ज्ञान स्वभाव का ऐसा ही शास्वत स्वभाव रूप उपचरित पर पद अर्थात ज्ञेय के विकल्प का अनुभव होने के कारण इस अन्यपना और अनन्यपना में विरोध का करने वाले के साथ ही साथ भाव धुत ज्ञान के विकल्प मा भ्रम होने पर भी इस सम्यक अनेकान्तस्वरूप ज्ञान (उपचार-निक्षेप) रूप द्रव्यश्रुत ज्ञान (अंतर्जल्प एवं बहिस्वभाव में कोई विरोध नही है क्योंकि पर अपेक्षा में अन्य जल्प रूप शन्द शान) का भी अविनाभावी निमित्त नमत्तिक

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