Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 18
________________ १६ ३५, कि०१ अनेकान्त . अवकाश नहीं होगा। सम का अर्थ है मन की तराजू के हुए। आत्म-बोध होते ही समस्त वैभव विलास को जीणं पलड़ों का समान रहना (न रागन द्वेष, न आकर्षण न तृणवत छोड़कर बनवासी हो गये। निजी जैन धर्म प्राणी मात्र को एक आंख से देखता आज हम कितने उन्मुक्त, स्वच्छन्द व मर्यादाहीन हो है, पीटी से लेकर हाथी और देव से लेकर दानव । यहाँ गये किमी में किया । तक कि सूक्ष्म एकैन्द्रिय जीव (पृथ्वीकाय, जलकाय आदि) बड़ा कारण यही अनुशासनहीनता है। अनुशासन आत्मको भी प्राणों के विछोह के समय दुख का वेदन होता है। संयम जैन धर्म का परम आदर्श है। ब्रह्मचर्याणुव्रत का समता का यह मादर्श आज के संसार को बचाने में समर्थ पालन करने से व्यक्ति में अनुशासन व संयम का दीप है, यह शीतल जल का कार्य कर उस धधकती ज्वाला को प्रज्वलित हो सकता है। बुझा सकता है। ___ आज विश्व में अशांति का एक प्रमुख कारण परिग्रह 'परस्परोपग्रह जीवनाम्' का सन्देश हमें महावीर ने है। परिग्रह हमें अंधा बनाता है। स्वार्थी बनाकर केवल दिया। इस सन्देश में सभी जीवों के साथ उपकार करने अपने लिए धन संग्रह के लिए प्रेरित करता है। अधिको एक साथ जीवन-यापन करने की बात कही। अहिंसा काधिक संग्रह से मूल्य बढ़कर मुद्रास्फीति की समस्याएं के पौधे से सहअस्तित्व का पुष्प पल्लवित होता है आज पैदा होती है। बड़े देश छोटे देशों का शोषण करते हैं। के विश्व में जब अहिंसा की भावना ह्रास को प्राप्त हो शोषण की इस प्रवृति को; परिग्रह की इस दुर्भावना को रही है तो स्वाभाविक रूप से यह सहअस्तित्व का पुष्प अपरिग्रह अर्थात आवश्यकतानुसार परिग्रह से नष्ट किया पूर्ण विकसित नहीं हो रहा । विश्व इस पुष्प की सुवास से जा सकता है और संसार में विश्वव्यापी शांति स्थापित की बहत कुछ रीता होता जा रहा है। आज के तथाकथित जा सकती है। अहिंसक व्यक्ति अपरिग्रह वादी होता है, बडे राष्ट्रों को यह सहन नही हो पा रहा है कि छोटे राष्ट्र अहिंसा की भावना से प्रेरित व्यक्ति अपनी आवश्यकता को अधिकाधिक विकास करके उनकी लाइन में खड़े हों क्योंकि उसी सीमा तक बढ़ाता है जिसमें किसी अन्य प्राणी के इससे उनके निहित स्वार्थ टकराते हैं, छोटे राष्ट्रों पर बड़े हितों को आधात न पहुचे। केवल अधिक उत्पादन मात्र से राष्ट्रों का वह दबदबा महीं रह पाता। हमारी सामाजिक समस्यायें नही सुलझ सकती। व्यक्ति को अन्दर से बदलना होगा, उसकी कामनाओं, इच्छानों आज पाश्चात्य सभ्यता के मर्यादा बिहीन जीवन-मूल्य को सी मत करना होगा । कामनाओ के नियन्त्रण की शक्ति सम्पूर्ण विश्व को सक्रामक रोग की तरह असते जा रहे हैं। या तो धर्म मे है या शासन की कठोर व्यवस्था में । धर्म आज के व्यक्ति के लिए संयम व मर्यादा का कोई मूल्य का अनुशासन आत्मानुशासन है, इसके प्रतिबन्ध प्रसन्नता नहीं। वह वासना के लिए नारी का भोग करता है उसे देने वाले होते हैं । संयम परिलौकिक आनन्द के लिए नहीं, भोग सामग्री के अतिरिक्त कुछ नही समझता । यह नारी वर्तमान जीवन को सुखी बनाने के लिए भी आवश्यक है। का परिग्रह है, परिग्रह धन का ही नहीं, मनुष्यों का भी पाश्चात्य सभ्यता निर्वाध भोगों में रत है फिर भी वहां देखने में आता है (दासता के रूप में) और नारी का परि जीवन में सत्रास, अविश्वास, वितृष्णा एवं कुंठामें हैं। ग्रह भोग व दहेज के रूप में होता है । दहेज कम लाने पर उसे जीवित जलाया जाता है। कामुकता व वासना की पंक स्वस्थ समाज व राष्ट्र के निर्माण के लिए पारस्परिक से निकलने के लिए जैन धर्म का ब्रह्मचर्य सहायक है । ब्रह्म स्नेह सौजन्य तथा एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझना चर्य संयम सिखाता है लेकिन उसमें नारी-प्रेम व नारी- आवश्यक है। महावीर ने नवीन विचारशैली का आवि. सम्मान गभित है। हम पुराणों को उठाकर देखें तो विदित कार किया जिसे अनेकांत कहा गया। इसे वैचारिक होगा कि महापुरुषों ने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में राज्य- अहिंसा भी नाम दिया जा सकता है। अहिंसक व्यक्ति कार्य करते हुए पंचेन्द्रिय सुख भोगे पर उनमें मोहित नही आग्रही नही होता । अनेकांत व्यक्ति के अहकार की मक

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