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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ कुछ दार्शनिक विद्वानोंने तो अनेकान्तवाद- नयवाद उनमें मुख्य हैं। नयवाद वस्तुमें विभिन्न के विरोधका भी प्रयत्न किया है; पर उन्हें अस- धोका आयोजन करता है और सप्तभंगीवाद एकफल होना ही चाहिए था और वैसा हुआ भी, एक धर्मका विश्लेषण करता है। कुछ उदाहरणों यह हम नहीं आजके जैनेतर निष्पक्ष विद्वान भी द्वारा नीचे इसी बिषयको स्पष्ट किया जाता स्वीकार करते हैं। कुछ लोगोंने अनेकान्तवादको है:संशयवाद कहकर भी अपनी अनभिज्ञता प्रदर्शित
बौद्ध दार्शनिक प्रत्येक पदार्थको क्षणभंगुर की है, पर उसके विवेचनकी यहाँ आवश्यकता नहीं है।
मानते हैं। उनके मतसे पदार्थ क्षण-क्षण नष्ट
होता जाता है और अव्यवहित दूसरे क्षणमें ज्यों हम संसारमें जो भी दृश्य पदार्थ देखते हैं का त्यों नवीन पदार्थ हो जाता है। इसके विरुद्ध अथवा आत्मा आदि जो साधारणतया अदृश्य कपिलका सांख्य दर्शन कूटस्थ नित्यवादको अंगीपदार्थ हैं, उन सबके अविकल ज्ञानकी कुंजी कार करता है । इसके मतसे सत्का कभी विनाश अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवादका आश्रय लिए नहीं होता और असत्का उत्पाद नहीं होता। बिना हम किसी भी वस्तुके परिपूर्ण स्वरूपसे अतएव कोई भी पदार्थ न तो कभी नष्ट होता है, अवगत नहीं होसकते । अतएव अन्य शब्दोंमें यह न उत्पन्न होता है। इसी प्रकार वेदान्त दर्शनके कहा जासकता है कि 'अनेकान्त' वह सिद्ध यंत्र अनुसार इस विशाल विश्वमें वस्तुओंकी जो विविहै जिसके द्वारा अखण्ड सत्यका निर्माण होता है धता दृष्टिगोचर हो रही है सो भ्रम-मात्र है ।
और जिसके बिना हम कदापि पूर्णतासे परिचित वस्तुतः परम-ब्रह्मके अतिरिक्त कोई दूसरी सत्ता नहीं होसकते।
नहीं है। वस्तुओंकी विविधता सत्ता-रूप ब्रह्मके
ही विविध रूपान्तर हैं। इस प्रकार वेदान्त अद्वैतप्रत्येक पदार्थ अपरिमित शक्तियों-गुणों
। वादको अंगीकार करता है। इसके विरुद्ध अनेक अंशोंका एक अखण्ड पिण्ड है। पदार्थकी वे
दार्शनिक परमात्मा, जीवात्मा और जड़की पृथक शक्तियाँ ऐसी विचित्र हैं कि एक साथ मित्रभावसे
पृथक् सत्ता स्वीकार करते हैं और कोई-कोई जीव रहती हैं, फिर भी एक दूसरेसे विरोधी-सी जान
और जड़ का द्वैत मानकर शेष समस्त पदार्थोंका
। पड़ती हैं, उन विरोधी प्रतीत होने वाली शक्तियों .
इन्हींमें अन्तर्भाव करते हैं। का समन्वय करने, उन्हें यथायोग्य रूपसे वस्तुमें . स्थापित करनेकी कला 'अनेकान्तवाद' है। जैसे जब कोई भद्र जिज्ञासु दर्शन-शास्त्रोंकी इस अन्यान्य कलाओंके लिए कुछ उपादान अपेक्षित विवेचनाका अध्ययन करता है तो वह बड़े असहैं उसी प्रकार अनेकान्तकलाके लिए भी उपादानों- मंजस में पड़जाता है। वह सोचने लगता है कि । की आवश्यकता है। उन उपादानोंका जैन-दर्शनमें मैं अपनेको क्षणिक समझं या कूटस्थ नित्य विस्तृत विवेचन किया गया है । सप्तभंगीवाद और मानलं ? मैं अपने आपको परम ब्रह्मस्वरूप मान