________________
, तत्वचची
HA
4
३
- अनेकान्तवाद
लेखक-पं० मुनि श्रीचौथमलजी] जैन-धर्म एवं जैनदर्शनमें जिन बहुमूल्य साधारणका सिद्धान्त बन जाना चाहिए सिद्धान्तोंका प्ररूपण किया गया है उनमें 'अने- था वह सिर्फ जैन-दर्शन तक ही सीमित कान्त' मुख्य है।
रह गया औरउसेभी अनेकान्तवादकीम- इस लेखके लेखक मुनि श्रीचौथमलजी
साम्प्रदायिकताकारूप हत्ता. उपयोगिता श्वे० स्थानकवासी जैनसमाजके एक
धारण करना पड़ा। और वास्तविकताको प्रधान साक्षर साधु और प्रसिद्ध वक्ता हैं ।
दूसरे,दर्शनशास्त्रोंके देखते हुए, उसे जैन- आपका यह लेख महत्वपूर्ण है और उसपरसे
परस्पर विरोधोदृष्टि साहित्यमें जो स्थान मालूम होता है कि आपने अनेकान्त-तत्त्वका
कोण, जो जनताको प्राप्तहुआ हैवहसर्व
अच्छा मनन और परिशीलन किया है। भ्रममें डालतेहैं, एकथा उचित ही जान
तभी आप विषयको इतने सरल ढंगसे दूसरेसे पृथक ही बने पड़ता है। अनेका
समझाकर लिख सके हैं । लेख परसे पाठकों- रहे-उनका समन्वय न्तवाद वस्तुतःजैनको अनेकान्त-तत्त्व के समझने में बहुत कुछ
न होसका। दर्शनशा दर्शनका प्राण है।
आसानी होगी । आशा है सेवाधर्मके लिये। स्रोंके इस पृथक्त्वने यद्यपि इसे अन्यान्य दर्शनकारोंनेभीकहीं
दीक्षित मुनिजीके लेख इसी तरह बराबर । साम्प्रदायिकताखड़ी
अनेकान्त' के पाठकोंकी सेवा करते रहेंगे। कहीं अपनाया है पर
करके जनतामेंधार्मि
-सम्पादक अधिकांशमें उन्होंने
क असहिष्णुताको इसकी उपेक्षा ही की है। इस उपेक्षाका एक उत्पन्न किया सो तो किया ही, पर उसने फल तो यह हुआ कि जो 'अनेकान्त' मर्व अखण्ड सत्यका प्रकाशन भी न होने दिया ।