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परन्तु वह आए तो कैसे आए ? तूने ही तो सारे दरवाजे बन्द कर रक्खे हैं ! द्वार खोल दे, खिड़कियाँ खोल दे ! धूप आएगी, प्रकाश और हवा भी आएगी। फिर अन्धकार, सील और सड़ांध नहीं रहने की। मनुष्य अपने आप ही अपने को बन्धन में डाले हुए है, और बन्धन का ही रोना रो रहा है । कैसी विचित्र विसंगति है !
नए मन्दिर, नई मस्जिद आज का अल्लाह मस्जिद में बन्द है, तो आज का ईश्वर मन्दिर में रुका खड़ा है। दोनों ही मुक्ति की प्रतीक्षा में हैं और प्रतीक्षा में हैं-नई मस्जिद और नए मन्दिर की। मैं समभता हूँ, आज के मोमिनों और भक्तों को अपने दिल की मस्जिद के और अपने मन के मन्दिर के दरवाजे खोल देने चाहिएँ, ताकि अल्लाह और ईश्वर यहाँ आएँ तथा भटकते हुए मानव-जीवन को कल्याण का प्रशस्त-पथ दिखलाएँ।
दार्शनिकों से
दुनिया के दार्शनिकों ! भूखी जनता के मन की पुस्तक के पन्न उलटो ! वहाँ तुम्हें भूख की, गरीबी की, अभाव की फिलासफी पढ़ने को मिलेगी ! ईश्वर और जगत् की पहेलियाँ सुलझाने से पहले जनता के मन की गुत्थियाँ सुलझा लो। केवल बाल की खाल निकालने से क्या लाभ है, यदि यथार्थ रूप से वस्तु-स्थिति के दर्शन न किए जाए?
मूल प्रश्न
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