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साधक कौन ?
साधकों को जिस साधना के पथ पर चलना है, वह फूलों से आच्छादित, सुसज्जित एवं सुगन्धित राज - पथ नहीं है । वह तो, एक दुर्गम पथ है। उस पर पैरों को लहू-लुहान कर देने वाले काँटे और नुकीले पत्थर बिछे पड़े हैं। उस पर वज्र-हृदय को भी दहला देने वाली एक-से-एक भयंकर दुर्घटनाओं का तांता लगा हुआ है। इस पथ पर कदम रखने से पहले कबीर के शब्दों में सिर काटकर हथेली पर रख लेना चाहिए। साधक वह, जो काँटों को कुचल कर एवं समुद्रों को चीर कर तूफानों पर शासन करे। पहाड़ों की ऊँची - से - ऊँची चोटियों पर विचरण करे। संकट उसका मित्र हो और सुख उसका शत्रु ।
साधना
ध्याता, ध्येय और ध्यान । यह आध्यात्मिक - साधना की त्रिपुटी है। ध्याता भक्त है, ध्येय भगवान् है, और भक्ति ध्यान है। जब ध्याता ध्येय का ध्यान करते - करते ध्येयाकार हो जाता है, ध्येय रूप में परिणत हो जाता है, मोह - माया के बन्धन तोड़ कर स्वरूप में लीन हो जाता है, तब वह अपनी साधना का अमृतफल प्राप्त कर लेता है। आत्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञानोदय का नाम ही सच्चा ध्यान है, सच्ची भक्ति है। आत्मा से परमात्मा होना, भक्त से भगवान् बनना ही भगवत् स्वरूप की उपलब्धि है। जितनी - जितनी ध्येय के प्रति तन्मयता, उतनी - उतनी ध्येय के प्रति एकता, एकरूपता। तन्मयता की अखण्ड अनुभूति का रसास्वादन किए बिना साधक का कल्याण नहीं है।
अमर वाणी
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