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धर्म - शून्य पंथ
मैं धर्म से शून्य मत, पंथ या सम्प्रदाय को वैसा हो मानता हूँ, जैसा कि आत्मा से शून्य निर्जीव शरीर को। चैतन्य - शून्य शरीर लड़ता नहीं, सड़ता है। उसी प्रकार धर्म से शून्य सम्प्रदाय भी पवित्र जीवन के लिए संघर्ष नहीं करता, अपितु कदाग्रह की अपवित्रता से सड़ता है और धर्म - मूढ़ जनता को बर्बाद करता है।
धर्म का मर्म
मनुष्य ! तेरा धर्म तुझे क्या सिखाता है ? क्या वह भूलेभटके लोगों को राह दिखाना सिखाता है ? सब के साथ समानता का, भ्रातृ-भाव का, प्रेम का व्यवहार करना सिखाता है ? दीनदुःखियों की सेवा - सत्कार में लग जाना सिखाता है ? घृणा और द्वेष की आग को बुझाना सिखाता है ? यदि ऐसा है, तो तू ऐसे धर्म को अपने हृदय के सिंहासन पर विराजमान कर ! पूजा कर ! अर्चा कर ! इसी प्रकार का धर्म विश्व का कल्याण कर सकता है। ऐसे धर्म के प्रचार में यदि तुझे अपना जीवन भी देना पड़े, तो दे डाल ! हँस-हँस कर दे डाल !!
अन्तर् - दृष्टि
मिसरी की डली का माधुर्य मिसरी में ही है, बाहर नहीं। इसी प्रकार आत्मा का सत्य मनुष्य के भीतर आत्मा में है, बाहर नहीं। अतएव जीवन - सुधार के लिए सच्चरित्रता का प्रारम्भ अपने अन्दर में होना चाहिए, बाहर के स्थूल क्रिया-काण्डों में नहीं।
धर्म :
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