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ज्ञान और क्रिया
तरने की कला
तालाब हो या नदी हो-तट पर खड़े-खड़े हजार वर्ष भी यदि तैरने की कला पर शास्त्रार्थ करते रहो, तो तैरना नहीं आ सकता। तैरने की कला के लिए तो जल में कूदना होगा, हाथ - पाँव मारने होंगे। उस समय डूबने से बचने के लिए जो भी प्रयत्न होगा, उसी से तैरना आएगा।
धर्म के लिए भी यही बात है । वह केवल ज्ञान - गोष्ठियों में शास्त्रार्थ करने की चीज नहीं है। उसका सीधा सम्बन्ध आचरण से है । अतः जो महानुभाव धर्म पर बहस करना छोड़ कर उसे आचरण में उतारेंगे, वे अवश्य ही संसार-सागर में सैरने की कला सीख जाएँगे।
मुट्ठी में बन्द मिश्री की डली से मिठास न देने की शिकायत नहीं कर सकते । हाँ, मुंह में डालें, चूसें और फिर मिठास न आए, तो शिकायत ठीक है, परन्तु यह शिकायत कभी होने की नहीं। मिश्री और फिर मीठी न लगे, ऐसा कभी हो सकता है ?
मान और क्रिया :
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