Book Title: Amar Vani
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

Previous | Next

Page 179
________________ हैं। मैं कहता हूँ – बुद्धि में बड़े हो, पर बुद्धि में श्रेष्ठ भी हो या नहीं ? जब बुद्धि का उपयोग मानव समाज के कल्याण के लिए होता है, तभी उसमें श्रेष्ठत्व आता है। एक-दो क्या, दुनिया भर के ज्येष्ठत्व से श्रेष्ठत्व महान् है । अतः ज्येष्ठत्व के लिए नहीं, श्रेष्ठत्व के लिए प्रयत्न करो । वस्तुतः श्रेष्ठत्व में ही ज्येष्ठत्व की प्राण प्रतिष्ठा है । पाप और पापी से मनुष्य ! तुझे पाप से घृणा करने का अधिकार है, परन्तु पापी घृणा करने का अधिकार नहीं है । पाप कभी धर्म नहीं बन सकता, परन्तु पापी तो पाप को छोड़कर, कल क्या, आज ही, अभी ही पवित्र, पुण्यात्मा, धर्मात्मा बन सकता है । - बोलिए कम, सुनिए अधिक चतुरता अधिक बोलने में नहीं है, अपितु चुपचाप अधिक सुनने में है । मनुष्य को समझने में जल्दी करनी चाहिए और सुनने में देर - 'क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति ।' घर और वन क्यों वन - वन भटक रहे हो ? क्या वन में रहने से कुछ बन जाता है, घर में नहीं ? यदि घर में नहीं बन सके, तो वन में ही क्या बनना है ? हंस या काग हंस मोती चुगते हैं और काग विष्ठा ! तुम निर्णय कर लो, कि तुम्हें हंस बनना है अथवा काग ? १५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only अमर - वाणी www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194