Book Title: Amar Vani
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 190
________________ तो तेरे अन्दर है, तेरी नस-नस में है। अपना ईश्वर तू अपने आप ही तो है। तेरे से अलग दूसरा ईश्वर कौन है। कोई नहीं ! तुझे कुछ शास्त्रकारों ने 'द्विभुजः परमेश्वरः' कहा है। क्या समझा ? दो हाथ वाला ईश्वर ! देख, तेरा ईश्वरत्व कहीं तेरी गलतियों से मिट्टी में न मिल जाए। उबलते रहो अरे ! हृदय में कुछ बल है या नहीं ? बल है, तो बड़वानल की तरह समुद्र की अपार जलराशि में रह कर भी उबलते रहो, ठण्डे पड़ो नहीं। यह भी क्या उबाल कि गर्म दूध की तरह उबल पड़े और जल के कुछ छींटों से ठंडे हो कर बैठ गए ? ओ मानव ! ओ मानव ! तू इस दुनिया के पीछे क्यों पागल है ? क्यों वेकल है ? यहाँ रहने के लिए तेरे पास दो-चार साँसों के सिवा और है ही क्या ? इस क्षणभंगुर जीवन के प्रति यह कैसा मोह और कैसी ममता ? कैसा राग और कैसा द्वेष ? किस ओर देखना है ? यदि तुम अपने मन के कोष में दोषों को जमा करना चाहते हो, तो अपने गुणों की ओर देखो, और यदि गुणों को जमा करना चाहते हो, तो अपने दोषों की ओर देखो ! विचार लो, तुम्हें क्या पसन्द है ? अतिथिदेवो भव ओ मानव ! जब कोई जरूरतमन्द तेरे द्वार पर आए, तो हृदय से उसका स्वागत कर । भारतीय संस्कृति अतिथि को अतिथि नहीं, ओ मानव: १६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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