Book Title: Amar Vani
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 188
________________ पत्नी-सम्बन्धी प्रेम को अपनी विवाहित पत्नी तक ही सीमित रखता है न ? उसको केवल भोग-विलास की पूर्ति का खिलौना तो नहीं समझ रहा है ? पत्नी के सुख-दुःख के साथ अपने अन्दर भी सुख-दुःख की अनुभूति कर सका है न ? रोग आदि की भयंकर स्थिति में मन लगा कर दिन-रात सेवा में जुटा रहा है न ? संकट का समय आने पर अपने प्राणों की आहुति दे कर भी पत्नी की लाज बचाने का प्रबल साहस किया है न ? मनुष्य ! यदि तू दूकानदार है, तो काले बाजार से बचकर रहना, ग्राहक को धोखा न देना, अपने मुनाफे पर ही नजर न लगाए रखना, ग्राहक की सुविधा और सन्तोष का भी ध्यान रखना, जो बताना, वही दिखाना और जो दिखाना. वही देना। देखना, कहीं तेरे गलत आचरण से समाज और देश की शान को बट्टा न लगने पाए ? ___मनुष्य ! यदि तू शिक्षक या मास्टर है, तो बच्चों का पिता बन कर रहना, उचित शिक्षा के साथ-साथ उचित दीक्षा का भी ध्यान रखना, कहीं पिछड़े - गंदे-सड़े और छोटे विचार न दे देना। विचार और आचार दोनों ही दृष्टियों से तुझे अपने देश की संतानों को ऊँचा उठाने का महान कार्य सौंपा गया है। बच्चे अभी मिट्टी के पिंड है, तू इनमें से राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, गाँधी और नेहरू की मूर्तियाँ बना। तुझे इन अज्ञान पशुओं को मनुष्य बनाना है, देव बनाना है । समाज और देश के लिए अच्छे आदमी, एवं अच्छे नागरिक बनाने का उत्तरदायित्व तुझे मिला है । देखना, कहीं भूल न कर जाना ? मनुष्य ! यदि तू अपने देश के शासन - तन्त्र का कहीं कोई अधिकारी है, तो क्या तू समझता है कि मैं जनता का एक तुच्छ सेवक हूँ ? मेरा काम शासन करना नहीं, सेवा करना है। जनता ने अपने पैसों से मेरे और परिवार के लिए खाने, पीने, पहनने ओ मानव : १६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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