Book Title: Amar Vani
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 187
________________ अनुचित मार्ग तो उनके लिए नहीं अपनाया है ? अपनी सन्तान के लिए दूसरों की सन्तानों से डाह और वैर - भाव तो नहीं रखा है। तुम्हारे कारण तुम्हारे अपने बच्चों में, परिवार के दूसरे बच्चों में और आस-पास के पड़ोसियों के बच्चों में परस्पर कितना स्नेह, सौजन्य बढ़ा है ? कहीं तुमने अपने किसी बच्चे के कोमल मन पर जाति, व्यक्ति या और किसी प्रकार की ऊँच - नीचता से सम्बन्धित घृणा-भावना का जहर तो नहीं छिड़क दिया है ? बहन ! यदि तू किसी की पत्नी है, तो विचार कर, तू ने पत्नी का क्या कर्तव्य पूरा किया है ? तू ने अपने पति को परिवार के दूसरे लोगों के प्रति गलत धारणाएँ तो नहीं दी है ? सास - ससुर के प्रति, माता - पिता जैसी ही श्रद्धा, भक्ति और सेवा - भावना रखी है न ? स्वच्छता का ध्यान न रख कर भोग - विलास एवं श्रृंगार की भावना में ही अधिक समय तो नहीं गुजारा है? घर की परिस्थिति ठीक न होते हुए भी सुन्दर गहने और वस्त्रों के लिए पति को तंग तो नहीं किया है ? ननद, देवरानी, जेठानी और दूसरी पड़ौसिनों के साथ स्नेह, सद्व्यवहार का लेन - देन उचित रूप में किया है न ? अपने - आपको जब कभी अवसर मिला, तो क्या सीता और द्रौपदी के गज से नापने की कोशिश की है ? याद रख, ताजा गुलाब के फूल की तरह महकना तेरा काम है, बस तू अपने पवित्र जीवन को सुगन्ध से आस - पास के वातावरण को महका दे। मनुष्य ! यदि तू किसी का पति है, तो विचार कर कि क्या तूने पति का कर्तव्य पूरा किया है ? अपनी पत्नी को सहधर्मिणी समझता है न ? उसके साथ बराबर के सहयोगी मित्र-जैसा ही व्यवहार करता है न ? उसके स्नेही कोमल मन को कभी अपने अहं या किसी के बहकाए से चोट तो नहीं पहुँचाता ? अपने मन के १६२ अमर - वाणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194