Book Title: Amar Vani
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 185
________________ ओ मानव ! अन्धकार से प्रकाश की ओर मनुष्य ! तेरे चारों ओर गहरा अन्धकार है। लोग भटक रहे हैं, आपस में टकरा रहे हैं और विनाश के पथ पर जा रहे हैं। वस्तुतः अन्धकार अपने - आप में इतना ही बुरा है । क्या तू इस अन्धकार में से बाहर आना चाहता है ? यदि आना चाहता है, तो प्रेम, दया तथा सत्य की अखण्ड ज्योति बनकर आ। आने का मजा तब है, जबकि तेरी ज्योति से अन्धकार का काला मुख भी उजला हो जाए ! विचार कर मनुष्य ! यदि तू किसी का पुत्र है, तो विचार कर, क्या तूने पुत्र का कर्तव्य पूरा किया है ? तूने पिता का कैसा आशीर्वाद लिया है ? अपने ऊँचे आचरण से उनके गौरव को कितना ऊँचा उठाया है ? यथावसर सेवा के रूप में कब, कितना समय लगाया है ? क्या तुझे देख कर तेरे पिता प्रसन्न होते हैं ? तेरी इधर-उधर प्रशंसा करते हैं ? उनके मन के किसी कोने में तेरे कारण कोई आँसू की बूंद तो नहीं उभर रही है ? १६० अमर वाणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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