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आदि का सुन्दर प्रबन्ध कर मुझे अपनी सेवा के लिए नियुक्त किया है ? तू किसी से घूस तो नहीं लेता है ? किसी पर धौंस तो नहीं जमाता है ? अपने काम को व्यर्थ का भार तो नहीं समझता है ? किसी विशिष्ट व्यक्ति, परिवार, जाती या धर्म आदि की अनुचित तरफदारी तो नहीं करता है ?
मनुष्य ! यदि तू मनुष्य है, तो तेरा काम कठोर श्रम करके अपने जीवनोपयोगी साधन प्राप्त करना है। दयानतदारी और ईमानदारी ही तेरा सबसे बड़ा गुण है। पशुओं या राक्षसों की तरह किसी से कुछ छीन लेना अथवा उड़ा लेना, तेरा धर्म नहीं है।
मनुष्य को चाहिए कि वह दीपक की लौ न बने। यह भी क्या साहस कि जरा संकट या विरोध की हवा का झोंका आए,
और दीपक की तरह बुझ गए ? फिर अन्धकार-ही-अन्धकार ! प्रकाश का कहीं चिन्ह तक भी नहीं। मनुष्य को तो प्रज्वलित दहकता अंगारा होना चाहिए, जो तूफानी हवाओं के थपेड़ों से भी बुझे नहीं, प्रत्युत और अधिक धधक उठे, महानल का विराट रूप प्राप्त कर सके।
ऊंचे उड़ो अपने अन्दर अनन्त ज्ञात, अनन्त चैतन्य तथा अनन्त शक्ति का अनुभव करो। तुम भोग-विलास के कीड़े बन कर रेंगने के लिए नहीं हो । तुम गरुड़ हो, अनन्त शक्तिशाली गरुड़ ! तुम उड़ो, अपने अनन्त गुणों की अनन्त ऊँचाई तक उड़ते चले जाओ।
द्विभुजः परमेश्वरः
मानव । तेरा ईश्वर न पत्थर में है, न लकड़ी में है, न आग में है, न पानी में है, न आकाश में है और न मिट्टी की मूरत में है । वह
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अमर : वाणी
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