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इनसे भी सीखिए
जीवन - कला
बरसने वाले बादलो! गरजो, गरजो, और फिर गरजो ! तुम्हारा गर्जन मुझे प्रिय लगता है। मैं तुम्हारा गर्जन सुनूंगा, हजार बार सुनूंगा; क्योंकि तुम बरसने वाले बादल जो हो ! कुछ करने वाले बोलें, यह पाप नहीं है । यह तो उनका अधिकार है।
परन्तु, अरे ! तुम क्यों गरज रहे हो ! क्यों कान फोड़े जा रहे हो ? तुम्हें बरसना नहीं है और व्यर्थ ही गरज रहे हो ! जिस बोलने के पीछे करना नहीं है, वह बोलना भी कभी शोभता है ?
अरी ! ओ नन्ही बदलिया ! चुप - चाप आई, बरस गई ! कुछ भी तो नहीं बोली ! आने की सूचना तक नहीं दी ! तू ने तो एक ही झटके में जमीन पर पानी ही पानी कर दिया ! तू धन्य है, श्लाघनीय है। तू जीवन की कला का मर्म पहचानती है। चुपचाप बरसना ही तो जीवन का सौन्दर्य है ! वह कोई भी हो, शतशः वन्दनीय है; जो बोलता नहीं, कर डालता है। वाणी की अभिव्यक्ति क्रिया में करता है।
अरे ! तुम कैसे बादल ? न गरजते, न बरसते ! चुप-चाप अनंत
इनसे भी सीखिए :
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