Book Title: Amar Vani
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 171
________________ अदा नहीं किया ! जिनसे ज्ञान का प्रकाश पाया, उन्हीं की बहनों को उसने अन्धकार में रखा और अपना स्वार्थ साधा ! देवियों से देवियों ! मैं तुम्हारे बनाव - शृंगार पर आलोचना नहीं करूँगा, तुम्हारे पहनने-ओढ़ने और चाल-ढाल पर नुक्ताचीनी नहीं करूँगा ! यह सब मूरों का काम है, विचारकों का नहीं ! तुम अपने को जितना सुन्दर बना सकती हो, बनाओ ! यह कोई पाप नहीं है, गुनाह नहीं है ! सुन्दरता में तो प्रेम की सुगाव रहती है । परन्तु, एक बात का खयाल रखना । कहीं बाहर की सुन्दरता के फेर में पड़ कर अन्दर की सुन्दरता नष्ट न हो जाए ? तुम अन्दर ओर बाहर दोनों ओर से सुन्दर बनो ! तुम्हारा तन सुन्दर हो, उससे भी बढ़ कर वचन सुन्दर हो, और इन दोनों से बढ़कर अन्दर में मन सुन्दर हो ! बहनों से बहनों ! तुम्हें अलंकार चाहिए ? लज्जा, शील, संयम और कर्तव्य-निष्ठा के अलंकार पहनो ! तुम अंधकार में बिजली की तरह चमकोगी ! तुम्हारे प्रकाश से मानव-जगत् में नया प्रकाश भर जाएगा ! ये सीने-चाँदी के गहने, हीरे - जवाहरात के अलंकार ! ये तुच्छ हैं, भला इन कंकर - पत्थरों को पहन कर क्या प्रकाश प्राप्त करोगी ? अन्धकार में जग - मगाती दीपशिखा को कौन-सा अलंकार चाहिए ? वह अपना अलंकार आप है ! पुरुष और नारी ओ पुरुष ! तूने नारी को क्या समझ रखा है ? क्या वह भोगविलास की गुड़िया है, खिलौना है ? क्या तू उसे रेशमी साड़ियों १४६ अमर वाणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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