Book Title: Amar Vani
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 144
________________ विडम्बना इधर अंट-संट जो चाहा, वही अपथ्य खाते जाना और उधर वैद्य या हकीम से दवा मांगते रहना, कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? इधर पाप-पर- पाप करते जाना, और उधर भगवान् से क्षमा पर - क्षमा माँगते रहना, कहाँ की धार्मिकता है ? बाहर-भीतर एक समान अरे मनुष्य ! तू नुमाइश क्यों करता है ? तू जैसा है, वैसा ही बन ? अन्दर और बाहर को एक कर देने में ही सच्ची मनुष्यता है | यदि मानव अपने को लोगों में वैसा ही जाहिर करे, जैसा कि वह वास्तव में है, तो उसका बेड़ा पार हो जाए ! - वाणी नहीं, आचरण स्वामी रामतीर्थ परमहंस ने ठीक ही कहा है कि "शब्दों की अपेक्षा कर्म अधिक जोर से बोलते हैं ।" अतएव संसार के धर्मसाधको ! तुम चुप रहो, अपने आचरण को बोलने दो । जनता तुम्हारे उपदेश की अपेक्षा तुम्हारे आचरण के उपदेश को सुनने के लिए अधिक उत्कण्ठित है । ब्रह्मचर्य धन की सुरक्षा के लिए क्या उसे सुन्दर सोने की तिजोरी में रखा जाए ? इस प्रश्न का जो उत्तर है, वही ब्रह्मचर्य और शृंगार के सम्बन्ध में है | जहाँ मर्यादा हीन उद्दाम शृंगार वासना की आग को उदीप्त करता है, वहाँ ब्रह्मचर्यं सुरक्षित नहीं रह सकता । चरित्र - विकास के मूल तत्त्व : ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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