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शरीर पर मन का प्रभाव
स्वस्थ रहने के लिए तन और मन को अन्दर और बाहर से पवित्र रखने की आवश्यकता है। तन की अपेक्षा मन की पवित्रता
और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। स्वस्थ और उच्च जीवन की सफलता मन पर निर्भर करती है, क्योंकि शरीर मन का प्रभावक्षेत्र है। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य से भी अधिक आवश्यक है । मन के विकार-युक्त होने से अवश्य ही किसीन-किसी रूप में शरीर भी विकार - युक्त हो कर ही रहेगा। मन के अन्तर्-द्वन्द्वों को छाया शरीर पर पड़ कर रहती है।
मन को वश में रखिए
शरीर कहीं भी, किसी भी काम में लगा रहे । परंतु,मन को अंदर में आत्मा के केन्द्र से सम्बंधित रहना चाहिए। यदि मन नहीं भटकता है तो शरीर और इन्द्रियाँ बाहर दूर-दूर तक उड़ कर भी नियन्त्रण में रह सकेंगे, वापस लौट सकेंगे। पतंग कितनी ही दूर आकाश में उड़ती चली जाए, परन्तु उसकी डोर हाथ में है, तो फिर कोई खतरा नहीं।
क्रोध की चार परिणतियाँ
मनुष्य का निकृष्ट तामसिक-रूप है, क्रोध का मार-पीट आदि किसी भी तरह की हानि पहुँचाने में प्रयोग करना। मध्यम-रूप है गुस्से को व्यक्त करके रह जाना, आगे न बढ़ना । इससे अच्छा रूप है, क्रोध को अन्दर - ही - अन्दर पी जाना, बाहर व्यक्त भी न करना । इससे भी अच्छा रूप है, क्रोध को समाप्त कर विरोधी से
चरित्र - विकास के मूलतत्त्व ।
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