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अन्तर्मुख धर्म
जब तक धर्म अन्तर्लीन रहता है, तब तक अक्षत, स्थिर एवं सजीव रहता है | परन्तु, ज्यों ही वह अन्दर से निकल कर बाहर के छापा - तिलक, जनेऊ, दाढ़ी, चोटी, माला, मठ और मंदिर - मस्जिदों में पहुँच जाता है, त्यों ही क्षत-विक्षत एवं निर्जीव होने लगता है । धर्म को जीवित रखना है, तो उसे बाह्य की ओर प्रवाहित न कर, अन्दर की ओर प्रवाहित करो ।
धर्म का मूल
बाह्य धर्माचरण में देश, काल और समाज की परिस्थिति के कारण कितना ही क्यों न परिवर्तन हो, सब क्षम्य हो सकता है । धर्म का मूलरूप आत्म विजय है, राग द्वेष का क्षय है, परन्तु, उसकी उपेक्षा किसी भी दशा में क्षम्य नहीं हो सकती ।
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धर्म की पहचान
क्या आपका धर्म आपको व्यक्ति, जाति या संप्रदाय आदि के छोटे-छोटे घेरों से बाहर निकाल कर स्वतंत्र चिन्तन एवं स्वतंत्र मनन करने का अवसर देता है ? यदि हाँ, तो आपका धर्म श्रेष्ठ है, उसे पकड़े रखिए, कभी छोड़िए नहीं । वह पवित्र है ।
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भला और बुरा
जो भी कार्य करना हो, वह अच्छा है या बुरा, यह जाँचने का एक ही तरीका है । वह यह कि विचार की तराजू पर उसे तोल कर देख लो कि उसमें तेरा स्वार्थ अधिक है या जनता का ? यदि तू अपना स्वार्थ अधिक पाए, तो वह कार्य बुरा है और यदि जनता का स्वार्थ अधिक पाए, तो वह अच्छा है ।
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अमर वाणी
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