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धर्म का उद्देश्य
धर्म का उद्देश्य आत्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन करना है।
धर्म का प्राण
जीवन से अलग हटा हुआ धर्म, अधर्म है और आचार, दुराचार है। धर्म और आचार का प्रत्येक स्वर जीवन - वीणा के हर सांस के तार पर झंकृत रहना चाहिए।
प्रवृत्ति और निवृत्ति मनोनिग्रह का अपने-आप में कोई अर्थ नहीं है। हजारों दार्शनिक पुकारते हैं- मन को रोको, मन को वश में करो। परन्तु मैं पूछता हूँ "मन को रोक कर आखिर करना क्या है ?" यदि मन को अशुभ संकल्पों से रोक कर शुभ संकल्पों के मार्ग पर नहीं चलाया, तो फिर वही दशा होगी कि घोड़े को गलत राह पर जाने से रोक तो लिया, किन्तु वहीं लगाम पकड़े खड़े रहे। उसे ठीक राह पर न चला सके।
आज का धर्म
आज के मनुष्य के मन को न स्वर्ग का लालच दिखा कर बदला जा सकता है और न नरक का भय दिखा कर। आज का मनुष्य वर्तमान जीवन में ही स्वर्ग और नरक की समस्या का हल देखना चाहता है। अतः उसे वह विचार चाहिए, जो उसे जीवित रहते हुए मनुष्य बनने की यथार्थ प्रेरणा दे सके। क्या आज के धर्म और पन्थ के धर्म गुरु उपर्युक्त समस्या पर ठंडे दिल से कुछ विचार कर सकेंगे ?
धर्म:
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