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अनादिकालीन कुसंस्कारों के कारण बीच - बीच में भूल हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं। साधक को इस दशा में हताश और निराश नहीं होना चाहिए । अपनी स्वाभाविक पवित्रता में विश्वास रख कर भूलों का संशोधन करते हुए आगे बढ़ना चाहिए।
और, हाँ, भूलों का संशोधन कुछ रोना-धोना और हाय-हाय करना नहीं है । भूलों का संशोधन करने का अर्थ है, भूलों के मूलउद्गम का पता लगाना और भविष्य में बचे रहने के लिए दृढ़ संकल्पपूर्वक निश्चय करना । अतएव जैन - संस्कृति की प्रतिक्रमणसाधना का उद्देश्य पूर्व दोषों को दूर करना और पुनः उस प्रकार के दोषों के न होने के लिए सावधान होना है। यह भूल संशोधन की पद्धति धीरे - धीरे आत्मा को दोषों से मुक्त करती है, अनादिकालीन कुसंस्कारों को दूर करती है और साधक को अपने आत्मस्वरूप में स्थिर कर अजर-अमर निजानंद का द्वार खोल देती है।
भीतरी सफाई
दीप - मालिका का त्यौहार आता है, तो लक्ष्मी के स्वागत - समारोह में मकान साफ किए जाते हैं, कूड़ा - करकट बाहर फेंक दिया जाता है, रंगरोगन और सफेदी सब तरफ चमचमा उठती है। परन्तु, मैं पूछता हूँ-मकान तो साफ - सुथरे हो रहे हैं, किन्तु आपके मन्दिर का क्या हाल है ? कितनी गन्दगी है, कितनी बदबू है, वासनाओं के कूड़े का कितना ढेर लगा है वहाँ ? जब तक आप का मन मैला है, तब तक लक्ष्मी अन्दर कैसे आएगी ? वह बदबू से तंग आकर वापस लौट जाएगी। और यदि वह किसी तरह भुलावे में आ भी गई, तो वह गन्दी, मैली, कुचैली होकर भी नहीं रहेगी, चुडैल हो जाएगी। अरे, आप तो जानते हैं कि घर में चुडैल का घुस आना, क्या कुछ गुल खिलाता है ? आत्म - शोधन :
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