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क्या तू जड़ कर्म-पुद्गलों के इन विकारी भावों को अपना समझता है ? यदि ऐसा है, तो तुझसे बढ़ कर कोई मूर्ख नहीं, कोई पागल नहीं।
आत्म - चिन्तन
मनुष्य है, तो मनन करे कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? क्या करके आया हूँ ? अब क्या कर रहा हूँ ? क्यों कर रहा हूँ ? कहाँ जाना है ? कब जाना है ? क्या कमाया ? क्या खोया ? कितना आगे बढ़ा ? कितना पीछे हटा ? मेरे अन्दर कितना पशुत्व का अंश है ? कितना मनुष्यत्व का और कितना देवत्व का ?
भावना
तू तो वह आत्मा है, जिसे न आँख देख सकती है, न कान सुन सकता है, न नाक सूघ सकती है, न रसना चख सकती है और न स्पर्श छू सकता है। और तो क्या, संसार में सूक्ष्म निरीक्षण का सबसे बड़ा दावेदार मन भी तुझे नहीं जान सकता। तू अपना रूप आप ही निहार सकता है। बता, तू इस दिशा में कब प्रयत्नशील होगा ?
अपने आप को पहचानो
अपने अन्दर अनन्त ज्ञान, अनन्त चैतन्य एवं अनन्त शक्ति का अनुभव करो। तुम कीड़े बनकर भोग - विलास की कीचड़ में कुलबुलाने के लिए नहीं हो ! तुम गरुड़ हो, अनन्त शक्तिशाली गरुड़ ! तुम उड़ो, अपने अनन्त गुणों की अनन्त ऊँचाई तक उड़ो।
आत्मा महाशक्तिशाली है !
सिंह के नवजात बच्चे को गड़रिया उठा लाया और भेड़ - बकरियों में छोड़ दिया । बस, वह अपने को भेड़-बकरी ही समझने
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अमर • वाणी
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