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अन्तर्-मुखी बनो आत्मा ! तुझे दुनिया की तू-तू, मैं-मैं से क्या लेना-देना है ? तू तो बाहर नहीं, अन्दर देख ! दूसरों को नहीं, अपने को निहार ! बाहर देखने वाला भिखारी है और अन्दर देखने वाला चक्रवर्ती है, सम्राट् है !
सुख का स्त्रोत
सच्चे सुख का अखण्ड स्रोत आत्मा में अपने अन्दर ही है। देह में नहीं, इन्द्रियों में नहीं, धन में नहीं, जन में नहीं, अधिक क्या, अन्यत्र कहीं नहीं ! कहीं नहीं !! कहीं नहीं !!
अपने को पहचान
मनुष्य ! तू जाग, उठ और खड़ा हो जा। यदि तू अपने अन्दर की प्रभुता को पहचान ले, तो फिर तेरा छोटे-से-छोटा मूक संकेत भी नरक को स्वर्ग में बदल सकता है। तेरी शक्तियाँ एक-दो, तीन की गिनती से नहीं गिनी जा सकतीं। उनके लिए तो एक ही शब्द है-अनन्त ! अनन्त !! अनन्त !!!
अरे ! तुम आत्मा हो, फिर भी डरते हो, गिड़गिड़ाते हो ! तुम्हारा प्रकाश तो वह प्रकाश है, जो सूरज में भी नहीं, चाँद में भी नहीं । तुम्हारी शक्ति तो वह शक्ति है, जो इस विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं है।
तुम कौन हो !
तू न स्त्री है, न पुरुष, न ब्राह्मण है, न शूद्र, न स्वामी है, न दास ! तू तो एक आत्मा है, शुद्ध, बुद्ध, अजर, अमर, अरूप !
अन्तर्दर्शन ।
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