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भगवान् महावीर की दार्शनिक भाषा, इस भाषा से सर्वथा विपरीत है । वे कहते हैं, उत्थान सहज है, निज परणति है और पतन विभाव है, पर परणति है । उठना सहज है, गिरना कठिन है । क्रोध, मान, माया और लोभ से क्षमा, नम्रता, सरलता एवं उदारता में आना स्वभाव में आना है, अपने सहज भाव में पहुँचना है ! इसके लिए किसी बाह्य आलम्बन की आवश्यकता नहीं है ! हाँ, क्रोध, मान आदि कषायभाव में जाना, विभाव में जाना है, अतः वह कठिन कार्य है। इसके लिए औदयिक भाव का आलम्बन चाहिए। तुम्बा पानी की सतह पर तैरता है, यह उसका स्वभाव है, इसके लिए किसी बाह्म साधन की अपेक्षा नहीं है । क्या तुम्बा तैरने के लिए किसी का सहारा लेता है ? नहीं, वह अपने अन्तःस्वभाव से तैरता है। पर, तुम्बे को डूबने के लिए अवश्य ही बाह्य साधन की अपेक्षा रहेगी। पत्थर बाँध दें, वह डूब जाएगा। तुम्बा अपने - आप नहीं डूबा है, पत्थर ने जबर्दस्ती डुबाया है।
यही बात आत्माओं के लिए है। संसार - सागर में तैरना उनका अपना स्वभाव है। और, संसार सागर में डूबना ? यह विभाव है, कर्मो का या वासनाओं का परिणाम है। वासनाओं को दूर करो। फिर हे विश्व की आत्माओं ! तुम सब तैरने के लिए हो, डूबने के लिए नहीं।
आत्म-शोधन
आत्मा वस्तुतः शुद्ध, निर्मल और महान् है, परन्तु वासनाओं के अनादि प्रवाह में पड़े रहने के कारण वह अनेकानेक दोषों और भूलों से दब-सी गई है । कीचड़ में पड़े हुए सोने की तरह से अपना स्वरूप ही भुला बैठी है । अतः जब कभी वह ऊपर उठने का प्रयत्न करती है, अहिंसा और सत्य की साधना के मार्ग को पकड़ती है, तो
अमर वाणी
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