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क्षीण होने वाले वैसे ही क्षुद्र टीले नहीं हैं ? हमारा अस्तित्व, उस टीले से क्या अधिक सुरक्षित है ? मैं समझता हूँ, नहीं।
मानव कितना क्षुद्र है ! मनुष्य बड़े - बड़े विशाल महल खड़े करता है, संगमरमर पत्थर पर लम्बी - चौड़ी प्रशस्तियाँ लिखाता है और उस पत्थर से अपने को अजर, अमर समझ कर अहंकार से फूल उठता है ।
परन्तु, उसके इस अहंकार का मूल्य क्या है ? वह स्वयं इस विराट् विश्व का एक छोटा - सा रज - कण है और उसका जीवन है, काल के महासागर में क्षण-भंगुर नन्हा-सा जल-कण ! क्या यह क्षुद्र अस्तित्व अकड़ने - मचलने के लिए है ?
जीवन का आरा
मेरी साँस अन्दर से बाहर जाती है और फिर बाहर से अन्दर आती है । यह बाहर और अन्दर का सिलसिला एक क्षण भी कभी रुके बिना वर्षों से चला आ रहा है। मुझे मालूम नहीं, यह क्या हो रहा है ? किन्तु, कुछ ऐसा लगता है, मानो जीवन - कण्ठ पर बड़ी तेज धारवाला आरा चल रहा है, जो जीवन को प्रतिपल काटकाट कर नष्ट किए जा रहा है। लोग कहते हैं, साँस जीवन का प्रतिनिधि है और मैं कहता हूँ कि यह 'मृत्यु का प्रतिनिधि है।'
__ अनासक्ति शहद की मक्खी मत बनो। पदार्थ का भोग करने बैठे, तो बस उस में फँस गए, फिर कभी छुटकारा ही न हो। मिश्री की डली पर बैठने वाली मक्खी बनो, ताकि समय पर भोग कर सको और जब चाहो, तब उड़ भी सको।
वैराग्य ।
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