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वृक्ष की डाल पर पक्षी बैठा है । यदि डाल टूटे, तो पक्षी को क्या ? वह झट उड़ कर आकाश में पहुँच जाएगा ! हाँ, बन्दर को अवश्य दिक्कत है, क्योंकि वह डाल के साथ जमीन पर ही आएगा आकाश में ऊपर उड़कर नहीं जा सकता । संसार वृक्ष की पदार्थरूपी टहनियों पर भी इसी प्रकार दो तरह के मनुष्य हैं । आसक्त मनुष्य बन्दर है, वह पदार्थ के नष्ट होने पर नीचे गिरता है, रोता है, बिलखता है और पछताता है । अनासक्त मनुष्य पक्षी है, वह पदार्थ के नष्ट होने पर ऊपर उड़ता है, वैराग्य भाव में विचरण करता है । संसार के हानि - लाभ को खेल समझता है । फलतः उसे कुछ भी दुःख नहीं होता ।
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सुख का केन्द्र
सुख कहाँ है ? वह संसार की विभिन्न सुन्दर वस्तुओं के होने में नहीं, अपितु उन वस्तुओं की अभिलाषा न रहने में है । अभिलाषा की पूर्ति में जो पौद्गलिक सुख होता है, वह सुख, सुख नहीं, दुःख - मिश्रित सुख है, सुखाभास है । सच्चा सुख इच्छा की पूर्ति में नहीं, प्रत्युत इच्छा के त्याग में है । रोग हो कर दूर हो जाए, यह क्या स्वास्थ्य है ? स्वास्थ्य वह है, कि रोग होने ही न पाए । अतएव सच्चा सुख उसे है, जिसका हृदय शान्त है । हृदय उसी का शान्त है, जिसका मन चंचल नहीं है । मन उसी का चंचल नहीं है, जिसको किसी भोग्य वस्तु की अभिलाषा नहीं है । अभिलाषा उसी को नहीं है, जिसकी किसी वस्तु में आसक्ति नहीं है । आसक्ति उसी को नहीं है, जिसकी बुद्धि में मोह नहीं है, राग-द्वेष नहीं है । वही तो महान् है, महात्मा है, साक्षात् देहाधिष्ठित परमात्मा है ! वही है सच्चिदानन्द ! अर्थात् सत्स्वरूप, चित्स्वरूप और आनन्दस्वरूप !
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अमर वाणी
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