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बिना लक्ष्य के यों ही शून्य - चित्त से तीर फेंकते जाइए, लक्ष्य वेध नहीं हो सकेगा, धनुर्विद्या का पण्डित नहीं बना जा सकेगा ।
श्रद्धा और तर्क
साधक को श्रद्धा और तर्क की उचित सीमा रेखा का निर्धारण करना है । तर्क - हीन श्रद्धा जहाँ अज्ञानता के अंधकूप में डाल देती है, वहां श्रद्धाहीन तर्क, अन्ततः सारहीन विकल्पों तथा प्रतिविकल्पों की मरुभूमि में भटका देता है । अतः श्रद्धा की सीमा तर्क पर होनी चाहिए और तर्क की सीमा श्रद्धा पर ।
अविश्वास
अनाज बोने के समय धरती में बीज फेंक देने के लिए भी, जब ग्रामीण किसान को कुछ विश्वास की आवश्यकता है, सुन्दर भविष्य के भरोसे की जरूरत है, तब क्या धर्माचरण के मार्ग में कुछ भी विश्वास अपेक्षित नहीं है ? खेद है कि आज का अश्रद्धालु मानव, संसार के कार्यों में तो सर्वत्र विश्वास का सहारा लेकर चलता है, भविष्य पर भरोसा रखकर आगे बढ़ता है, परन्तु धर्म के मार्ग में, जीवन-निर्माण की राह में, आज.... अभी....इसी.... घड़ी इसी क्षण ही सब कुछ प्राप्त करना चाहता है । धर्म - फल के प्रति इतनी आसक्ति ! धर्म की सर्वतो महती अनन्त अनन्त प्रभु - शक्ति पर इतना भयंकर अविश्वास !!
अश्रद्धा
अश्रद्धा अधर्म है । अश्रद्धा की नींव असत्य है, और जहाँ असत्य है, वहाँ धर्म कहाँ ? श्रद्धा हीन अविश्वासी का मन अन्ध कूप है, जहाँ साँप, बिच्छू और न मालूम कितने जहरीले कीड़े
श्रद्धा :
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