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भक्ति
आत्म-देवता की पूजा मनुष्य ! तेरे अपने अन्दर भी एक देवता है, जिसके मन्दिर में अनादि काल से कोई आरती नहीं संजोई गई है, पूजा नहीं की गई है।
न कभी घंटा बजा है, न घड़ियाल ! और न कभी शंख ध्वनि ही हुई है। कितना भीषण डरावना सन्नाटा है यहाँ !
अरे ! मन्दिर में झाडू - बुहारी तक न लगाई ! कितना कूड़ा है ! बेचारा देवता कूड़े - करकट के ढेर में दब - सा गया है । जरा एकाध बार झाडू तो लगाओ, जिससे देवता ठीक से दिखलाई तो पड़े ? __अन्धेरे का भी कोई ठिकाना है ! कुछ भी तो नहीं सूझता ! दीपक जला कर बाहर ही क्यों रख देते हो ? जरा अन्दर भी तो दीपक जलाओ !
सुगन्ध ! यहाँ कहाँ सुगन्ध है ? दुर्गन्ध के मारे बुरा हाल है ! देवता के मन्दिर में इतनी गन्दगी ! वेदी पर एक भी तो फूल नहीं चढ़ा है !
हाँ ! चन्दन का लेप उस अन्तर्-वासी देवता पर करो ! फूलों का हार भी अपने हृदय-देवता को चढ़ाओ।
यह आत्म - पूजा ही परमात्मा की पूजा है। बाहर के देवीदेवताओं की अर्चना माया - जाल है। जाल बन्धन के लिए होता है, मुक्ति के लिए नहीं।
भक्ति :
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