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नहीं लाते । जो लोग पीछे पड़े हैं, कोने में दुबके हैं, उनके लिए संसार के सत्कार का उपहार कहीं भी नहीं है। हाथी रण-क्षेत्र में रहते हैं और मच्छर अँधेरी कोठरी के गन्दे कोने में !
प्रतिज्ञा पर अड़े रहो आपने प्रतिज्ञा कर ली, बुराई का परित्याग कर दिया । परन्तु फिर उसी बुराई को अपनाने लगे, स्वीकृत प्रतिज्ञा को भंग करने लगे। यह तो ऐसा हुआ कि पहले थूका, और फिर चाट लिया। बात कड़वी है। परन्तु, यह कटु औषध, हलाहल जहर पीने से बचाती है। सती राजीमती ने रथनेमि को इसी प्रकार ललकारा था-"क्या तुम वमन किए हुए भोजन को फिर खाना चाहते हो। यह तो कुत्तों का काम है, मनुष्यों का नहीं। इस प्रकार के कुत्सित जीवन से मृत्यु कहीं अच्छी है" ।'
वस्तुतः प्रतिज्ञाहीन भोगासक्त जीवन मुरदे के बराबर है। १. राजामती की कथा जैन - साहित्य में अत्यन्त प्रसिद्ध है। बाईसवे तीर्थङ्कर भगवान् नेमिनाथ के साथ उसका विवाह निश्चित हुआ था। बरात के स्वागत में मारे जाने वाले पशु - पक्षियों के करुण - क्रन्दन को सुनकर नेमिनाथ विवाह किए बिना ही वापिस लौट गए और घर - बार छोड़ कर मुनि हो गए। राजीमती ने भी दूसरे व्यक्ति के साथ विवाह करने की अपेक्षा अपने मनोनीत पति के पथ पर चलना उचित समझा। वह भी परिव्राजिका हो गई। एक बार वह नगर से रैवताचल पर्वत पर जा रही थी। मार्ग में वर्षा होने लगी, और वह भींग गई। पास ही एक गुफा थी। वह उसमें घुसकर कपड़े सुखाने लगी। नेमिनाथ का छोटा भाई रथनेमि भी उसी गुफा में ध्यानस्थ खड़ा था। बिजली की चमक के कारण उसकी दृष्टि राजीमती के नग्न शरीर पर पड़ी। मन विचलित हो उठा और उसने राजीमती के आगे सांसारिक सुख भोगने का प्रस्ताव रक्खा। उस समय राजीमती ने त्यक्त भोगों की वमन से उपमा दी और उसे फिर संयम-पथ पर दृढ़ कर दिया।
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अमर • वाणी
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