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भी अधिक कठोर है, जो उसमें से प्रेम, सहानुभूति और दया का झरता न बहे, हरियाली न फूटे ।
पड़त को तोडिए धरती की पड़त के नीचे सागर बह रहे हैं। पहाड़ की चट्टान के नीचे झरने उछल रहे हैं । जरा पड़त हटाने की देर है और फिर पानी - ही - पानी ! मनुष्य के स्वार्थी - मन की पड़त के नीचे भी मानवता का, दया का और करुणा का अपार सागर लहरा रहा है। मन की पड़त को तोड़ कर मानवता का अमृत - झरना बहा देने में ही मानव-जीवन की सफलता का रहस्य छिपा हुआ है।
मानव-जीवन की भूमिका यदि तू देवता है, तो कुछ नीचे उतर जा और यदि पशु है, तो ऊपर चढ़ जा । मानव-जीवन की भूमिका पशुत्व और देवत्व के बीच की भूमिका है। यहीं से निःश्रेयस की ओर सीधी पगडंडी जाती है । पशु अवनति में है, तो देवता उन्नति में। पर निःश्रेयस, आत्मिक अभ्युदय, दोनों ही जगह नहीं है। वह मानव - जीवन में ही है, यदि कोई मानवता के पथ पर चल कर उसे प्राप्त करना चाहे तो !
चेतना का विकास
साधारण मानव की दृष्टि एक - मात्र अपनी ही देह और इन्द्रियों के भोग-विलास तक सीमित रहती है। उसकी चेतना केवल उसके अपने “मैं" में ही बन्द रहती है, आगे नहीं फैलती। ऐसा मानव स्वरक्षण वृत्ति के फंदे में पड़ कर भयंकर-से-भयंकर अन्याय, अत्याचार एवं पापाचार करने को कटिबद्ध रहता है। उसका उपास्य-देव एकमात्र अपना क्षुद्र 'मैं' ही है।
अमर वाणी
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