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परिस्थिति और मानव
परिस्थिति श्रेष्ठ है या पुरुष ? परिस्थिति शक्तिशाली है या पुरुष ? यह प्रश्न, कहते हैं कि इंगलैण्ड के सुप्रसिद्ध दार्शनिक एवं इतिहासज्ञ कार्लाइल ने उठाया था। किसी ने भी उठाया हो, यह प्रश्न आज का ही नहीं, मानव - जाति के आदि-काल का है।
ऊपर के प्रश्न का उत्तर दो तरह से दिया जाता रहा है। 'हम मनुष्य बेबस और लाचार हैं। हमारा अस्तित्व ही क्या है ? परिस्थिति ही मनुष्य को बनाती और बिगाड़ती है। मनुष्य परिस्थिति का दास है, क्रीतदास ! वह नगण्य मानव महान् हो गया! हो गया होगा, उसे परिस्थिति अच्छी मिली होगी। मैं बर्वाद ही हो गया। क्या करूँ ? परिस्थिति ने साथ नहीं दिया।' यह एक उत्तर है।
दूसरा उत्तर है- “परिस्थिति कुछ नहीं, मनुष्य ही सब-कुछ है । क्या परिस्थिति बलात् मनुष्य को नीचे - ऊँचे कर सकती है ? नहीं। मनुष्य स्वतन्त्र है। वह परिस्थिति के हाथ में नाचने वाली कठपुतली नहीं है। शक्तिशाली मनुष्य परिस्थिति को अपने नियंत्रण में लेता है, प्रतिकूल को भी अनुकूल बना लेता है और उसका स्वरूप जैसा चाहता है, बनाने में सफल होता है । पुरुष परिस्थिति का विजेता है, दास नहीं। परिस्थिति उसी पुरुष पर अधिकार करती है, जो अपने प्रचण्ड पुरुषत्व को पहले ही भूला बैठता है।"
दूसरा उत्तर ही श्रमण-संस्कृति का उत्तर है । श्रमण-संस्कृति में परिस्थिति की नहीं, पुरुष की श्रेष्ठता है। अपने भाग्य का विधाता, अनन्त शक्तियों का केन्द्र, विश्व का विजेता, स्वयं पुरुष ही है, और कोई नहीं ! कोई नहीं !! कोई नहीं !!!
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अमर - वाणी
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