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बाहर • भीतर एक समान अरे मनुष्य ! तू नुमाइश क्यों करता है ? तू जैसा है, वैसा बन । अन्दर और बाहर को एक कर देने में ही मनुष्य की सच्ची मनुष्यता है। यदि मानव अपने को लोगों में वैसा ही जाहिर करे, जैसा कि वह वास्तव में है, तो उसका बेड़ा पार हो जाए।
कर्मवाद का आदर्श एक सज्जन ने पूछा-“कर्मवाद का व्यावहारिक जीवन-क्षेत्र में क्या आदर्श है ?" मैंने कहा- “एक मनुष्य कहीं जा रहा है। दूसरा आदमी आता है और उसको पत्थर मार देता है। बताइए, तब क्या होता है ?" उत्तर मिला-“मन में भयंकर विद्रोह होता है, द्वन्द्व होता है, चारों तरफ घृणा, द्वेष, क्रोध एवं नफरत बरस पड़ती है। आखिर, उसने मुझे मारा ही क्यों ?" मैंने कहा"कल्पना करें, किसी ने मारा नहीं, व्यक्ति अपने आप ही गलती से ठोकर खा जाता है, और चोट लगने से तिलमिलाने लगता है। बताइए, तब क्या होता है।" उत्तर मिला--- "तब यही होता है कि अपनी गलती से ठोकर लगी है, अतः दूसरों को क्या दोष दें ? किससे द्वष, घृणा-नरफरत करें ? चोट लगी है, बस उसे समभाव से सहन कर लेना है। आखिर, अपनी भूल ने ही तो मारा है ?" मैंने कहा--"कर्मवाद यही सिखाता है कि अपना किया कर्म है। शान्ति से भोगो ! व्यर्थ ही दूसरों को दोष देने, और घृणा करने से क्या लाभ ? अपितु, दोषारोपण और घृणा, तो आगे के लिए और अधिक बन्धन में डालेगी ! दुःख का मूल कारण अपनी आत्मा में ही है, अपने दोष में ही है। दूसरे तो मात्र निमित्त हैं ! कर्मवाद, विचारक के लिए समभाव का आलम्बन है !"
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