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(१) चतुःशरण (२) आतुरप्रत्याख्यान (३) भक्तपरिज्ञा (४) संस्थारक ५) तंदुलवैचारिक (६) चन्द्रावेध्यक (७) देवेन्द्रस्तव (८) गणिविद्या १) महाप्रत्याख्यान (१०) वीरस्तव (११) ऋषिभाषित (१२) अजीवकल्प (१३) गच्छाचार (१४) मरणसमाधि (१५) तित्थोगालि (१६) आराधनापताका २७) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति (१८) ज्योतिष्करण्डक (१९) अंगविद्या (२०) सिद्धप्रामृत (२१) सारावली और (२२) जोवविभक्ति।' ____ इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं, यथा-'आउर पच्चक्खान' के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। ___इनमें से नन्दी और पाक्षिक के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, मरणसमाधि, महाप्रत्याख्यान-ये सात नाम पाये जाते हैं और कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम पाये जाते हैं। इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है।
यद्यपि प्रकीर्णकों की संख्या और नामों को लेकर परस्पर मतभेद देखा जाता है, किन्तु यह सुनिश्चित है कि प्रकीर्णकों के भिन्न-भिन्न सभी वर्गीकरणों में महाप्रत्याख्यान को स्थान मिला है।
यद्यपि आगमों की श्रृंखला में प्रकीर्णकों का स्थान द्वितीयक है, किन्तु यदि हम भाषागत प्राचीनता और अध्यात्म-प्रधान विषय-वस्तु की दृष्टि से विचार करें तो प्रकीर्णक, कुछ आगमों की अपेक्षा भी महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं । प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित आदि ऐसे प्रकीर्णक हैं, जो उत्तराध्ययन और दशकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन हैं।' महाप्रत्याख्यान-प्रकीर्णक
महाप्रत्याख्यान-प्रकीर्णक (महापच्चक्खाण-पइण्णयं) प्राकृत भाषा की एक पद्यात्मक रचना है । इसका सर्वप्रथम उल्लेख नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में प्राप्त होता है। दोनों ही ग्रन्थों में आवश्यक-व्यतिरिक्त उत्कालिक श्रुत के अन्तर्गत 'महाप्रत्याख्यान' का उल्लेख मिलता है। १. पंइण्णयसुत्ताई, पृष्ठ १८। २. नन्दीसूत्र--मधुकर मुनि, पृष्ठ ८०-८१ । ३. ऋषिभाषित आदि की प्राचीनता के सम्बन्ध में देखें__डॉ. सागरमल जैन-ऋषिभाषित एक अध्ययन (प्राकृत भारती संस्थान,जयपुर)। ४. (क) उक्कालिअं अणेगविहं पण्णत्तं तं जहा-(१) दसवेआलिअं"
(२९) महापच्चक्खाणं, एवमाइ । -नन्दीसूत्र-मधुकर मुनि-पृष्ठ १६१-१६२, (ख) नमो तेसिं खमासमणाणं""अंगबाहिरं उक्कालियं भगवंतं । तं जहा-: दसवेआलिअं (१)""महापच्चक्खाणं (२८)।
. (पाक्षिकसूत्र-देवचन्द्र लालभाई जैन, पुस्तकोद्धार, पृष्ठ ७६)
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