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महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक
( आत्मार्थ साधन प्ररूपणा) (८०-८३) यदि सुपुरुष अनाकांक्ष और आत्मज्ञ हैं, तो वे पर्वत की
गुफा में जाकर अपनी आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध कर लेते हैं ( अर्थात् मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं) और यदि वे सुपुरुष बुद्धिवान् एवं साधना सन्नद्ध हैं, तो पर्वत की गुफा, पर्वतीय भू-भाग और इसी प्रकार विषम एवं दुर्गम स्थानों पर (स्थित होकर ) अपनी आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध कर लेते हैं। तो फिर साधुओं की सहायता से और एक-दूसरे की प्रेरणा से ( उनके लिए ) परलोक में अपने प्रयोजन की ( अर्थात् आत्मार्थ ) की सिद्धि क्यों नहीं संभव होगी ? साधुओं के मध्य में रहते हुए मधुर जिनवचनों को कानों से श्रवण करके (सुपुरुष अपनी) आत्मा के प्रयोजन
को सिद्ध करने के लिए अवश्य ही समर्थ है। (४) धैर्यवान् पुरुषों द्वारा प्रतिपादित और सत्पुरुषों द्वारा आराधित
दुस्साध्य आत्म अर्थ को (जो पुरुष ) शिलातल पर अवस्थित
होकर सिद्ध कर लेते हैं, वे धन्य हैं। (अकृतयोग और कृतयोग के गुण-दोष को प्ररूपणा) (८५) बहिर्मुखी इन्द्रियों वाला, छिन्न चारित्र वाला, असंस्कारित तथा
पूर्व में साधना नहीं किया हुआ (व्यक्ति) श्रुत सम्पन्न होकर भी मरणकाल में अधीर हो जाता है। पूर्व में जिसने योग-साधना नहीं की है और ( जो) विषय-सुखों में आसक्त है, ऐसी आत्मा समाधि की इच्छुक होकर भी मृत्यु के
अवसर पर परीषह सहन करने में समर्थ नहीं होती है। (८७) पूर्व में जिसने योग-साधना की है और ( जो) विषयसूखों में
आसक्त नहीं है, ऐसी आत्मा ही समाधि की इच्छुक होकर मृत्यु
के अवसर पर परीषह सहन करने में समर्थ होती है। (८८) पूर्व में जिसने योग-साधना की है और जो विवेकयुक्त होकर
भावी फल की आकांक्षा से रहित हो गया है ऐसा मदित कषाय वाला ( व्यक्ति ) मृत्यु का तत्परतापूर्वक आलिंगन कर लेता है
( अर्थात् वह मृत्यु को देखकर विचलित नहीं होता है )। (८९) जो तप के द्वारा समत्वभाव में प्रवृत्त होता है ( उसके लिए)
पापियों के पापकर्मों तथा अपने सत्कर्मों का अतिक्रमण कर पाना शक्य होता है।
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